स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेनानी साताप्पा टोपण्णावर
श्री श्यामलाल पार्षद द्वारा रचित यह गीत हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रेरणा गीत बना था । इस गीत को गाते हुए न जाने कितने नौजवान आजादी के आन्दोलन में कूद पड़े थे। अपने झण्डे को ऊँचा रखने के लिए ही तो हमारे शहीदों ने अपनी कुर्बानियाँ दीं थीं। तिरंगा आज भी हमारे स्वाभिमान का प्रतीक है। यही तिरंगा राष्ट्र ध्वज हमारी कीर्ति को दिग् दिगन्त व्यापिनी बनाता हुआ आज भी शान से लहरा रहा है।
इसकी शान न जाने पाये। चाहे जान भले ही जाये ।।
यह मूल-मंत्र आज भी हमें राष्ट्र-ध्वज पर मर मिटने की प्रेरणा देता है। इसी राष्ट्र ध्वज के सम्मान की रक्षा के लिए अमर शहीद वीर साताप्पा टोपण्णावर ने अपनी जान की परवाह न करते हुए इसकी शान को बनाये रखा था।
दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य का एक छोटा सा ग्राम है 'कडवी शिवापूर' | मात्र 1500 लोगों की आबादी वाला यह ग्राम बेलगाँव जिले की मुरगुड तहसील में आता है। 'हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन के नायक केवल शहरी ही नहीं रहे, निपट ग्रामीण क्षेत्र के शहीदों / क्रान्तिकारियों / स्वतन्त्रता सेनानियों ने भी इस आजादी - लता को अपने रक्त से सींचा है' इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले साताप्पा का जन्म इसी कडवी शिवापूर में एक सामान्य जैन किसान परिवार में 1914 में हुआ। उनके पिता का नाम भरमाप्पा था।
साताप्पा उन दिनों मात्र 16 वर्ष का था, तभी 1930 का असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ । इस आन्दोलन में जगह-जगह स्वयं सेवक संघ बनाये जा रहे थे। बालक साताप्पा ने भी अपना नाम मुरगुड के एक दल में लिखा दिया और यहीं से शुरू हुई उसकी क्रान्तिकारी यात्रा, जिसने 1942 में देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कराकर ही विराम लिया।
राष्ट्रीय जन-जागरण के लिए साताप्पा निरन्तर गतिशील रहे । पास-पड़ौस के ग्रामों में जन-जागरण का सन्देश पहुँचाने का काम उन्हें सदैव सौंपा जाता रहा। धीरे-धीरे अपने गाँव कडवी शिवापूर के लोगों को तैयार कर उन्होंने एक ‘स्वयं सेवक पंथ' बना लिया। यह पंथ रोज कोई न कोई कार्यक्रम करता था, जिससे जन-चेतना जागृत रहे। रोज रात्रि में बैठकर कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई जाती थी। सरकारी अधिकारियों को इसकी खबर लगना स्वाभाविक था । साताप्पा को अनेक बार अनेक तरह की धमकियां दी गईं, तरह-तरह से डराया गया, पर वे रुके नहीं। 1940 में वे दो बार जेल में बन्द कर दिये गये, पर इससे भी उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई, अपितु दिन-प्रतिदिन उनकी देश-प्रेम की भावना उग्र और दृढ़ होती गई । सन्मति (मराठी), अगस्त 1957 लिखता है - सुमारे अट्ठाबीस वर्षाचा भरदार छातीचा ऊँचा पुरा उत्साही नि पाणीदार साताप्पा कडवी शिवापूरचंच नव्हे तर मुरगुड महालाच भूषण व स्फूर्ति-: - स्थान बनला होता ।' अर्थात् करीब 28 साल का चौड़े सीने का ऊँचा -- पूरा उत्साही व पानीदार (तेज या उग्र स्वभावी) साताप्पा केवल कडवी शिवापूर का ही नहीं मुरगुड का भी भूषण था ।
अगस्त 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में 9 अगस्त को बापू ने 'करो या मरो' की घोषणा की और वे बन्दी बना लिये गये, साथ ही सभी राष्ट्रीय स्तर के नेता भी बन्दी बना लिये गये, तो जनता अपने विवेक के अनुसार आन्दोलन चलाने लगी। जगह-जगह जुलूस, गिरफ्तारियाँ, धरना आम बात हो गई। इस आन्दोलन की यह विशेषता थी कि यह छोटे से छोटे गाँवों तक में फैल गया था। तब कडवी शिवापूर इससे अछूता कैसे रहता ।
12 अगस्त 1942 को गाँव के लोगों ने साताप्पा के नेतृत्व में एक जुलूस निकाला। निपट देहाती भी अब 'स्वराज्य' जैसे सम्मानपूर्ण शब्दों का अर्थ जानने लगे थे, वे जानते थे कि स्वराज्य का अर्थ है, ग्राम की स्वतन्त्रता, प्रदेश की स्वतन्त्रता, देश की स्वतन्त्रता और स्वयं हमारी स्वतन्त्रता। जुलूस ने स्थानीय ग्राम-पंचायत (मराठी भाषा में चावडी) पर पहुँच कर एक सभा का रूप ले लिया, सभा के अन्त में 'ग्राम-स्वातन्त्र्य' की घोषणा की गई और ग्राम पंचायत के ऊपर तिरंगा ध्वज फहरा दिया गया। ग्राम पंचायत में जितने भी दस्तावेज थे, उन पर कब्जा कर लिया गया और वहाँ नियुक्त सरकारी कारिन्दों को पंचायत छोड़ने पर विवश कर दिया गया। बेचारे कर्मचारी जान बचाकर भागे ।
सरकारी कर्मचारियों ने मुरगुड जाकर घटना की सारी जानकारी पुलिस-प्रशासन को दी। 15 अगस्त 1942 को पुलिस-प्रशासन ने लगभग 50 बन्दूकधारी और 10-15 लाठीधारी पुलिसवालों का दल बड़े सबेरे शिवापूर भेजा। इधर 50-60 युवकों की टोली सबेरे ही गाँव में साताप्पा के नेतृत्व में प्रभात-फेरी निकाल रही थी । गीत गाते और नारे लगाते युवकों का दल शान्तिपूर्वक ग्राम पंचायत की ओर चला जा रहा था। दल के आगे साताप्पा राष्ट्रीय ध्वज लेकर चल रहे थे।
बन्दूकधारी पुलिस दल ने युवकों को घेर लिया। युवक दल ने अपने ऊपर संकट आया जानकर जोर से जयकारा लगाया 'भारत माता की जय' । युवक जान रहे थे कि साक्षात् मृत्यु उनके सामने खड़ी है, फिर भी उनका उत्साह ठण्डा नहीं पड़ा, अपितु हृदय आनन्द से भर गया। शिवापूर की जनता इन युवकों का साथ दे रही थी। पाषाण हृदय सशस्त्र पुलिस - दानवों ने स्वातन्त्र्योत्सुक निःशस्त्र मानवों पर क्रूर हास्य किया। बड़ा ही हृदय - द्रावक दृश्य था वह।
अंग्रेज अधिकारी इस उत्तर से और अधिक चिढ़ गया। उसने मजिस्ट्रेट का हुक्म दिखाया और गरज कर कहा- 'फिर कहता हूँ, नाहक मारे जाओगे, झण्डा नीचा करो'!
वीर साताप्पा ने कड़ककर प्रत्युत्तर दिया- 'प्राण गेलातरी बेहत्तर, पण झेंडा खाली घेणार नाही घेऊ देणार नाहीं'
इधर सारे युवक गर्जना करने लगे- 'तुम्हारा'तिरंगी झेंड्याचा विजय असो। स्वतंत्र भारताचा विजय असो ||'
यह सुनकर अफसर आग-बबूला हो गया। साताप्पा ने ध्वज को अपने से अलग नहीं किया, न ही नीचे की ओर झुकाया । बौखला कर अंग्रेज अफसर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। धांय .... धांय .... दो तीन गोलियां चलीं, जो आगे खड़े साताप्पा को लगीं। उनकी छाती से रक्त की धार फूट पड़ी और मुँह से 'वन्दे मातरम्'। साताप्पा नीचे गिर पड़े। बालाप्पा आडिन, गुंडाप्पा पटगुंदी, सावंत जोडही, रुद्राप्पा मंगली, गंगाप्पा अरबल्ली, महादेव टोपण्णावर आदि अनेक युवक गिरफ्तार कर लिये गये। अंग्रेज अफसर ने ग्राम पंचायत पर कब्जा कर लिया।
खून से लथपथ साताप्पा को घर लाया गया। पर वे तो इस नश्वर देह को त्यागकर अंग्रेजों से लड़ने के लिए पुनर्जन्म धारण करने हेतु प्रयाण कर चुके थे। वे मरकर भी अमर हो गये ।
कड़वी शिवापूर में जिस स्थान पर उन्हें शहादत प्राप्त हुई थी, उस स्थान पर उनकी स्मृति में खड़ा स्मारक आज भी उनकी कीर्ति कथा कह रहा है।
'सन्मति' (मराठी) लिखता है- 'क्रूर कालानं त्याचं फुलतं जीवन हिरावलं होतं, पण त्याला हुतात्म्यानं तेजस्वी मरण देऊन । कडवी शिवापूरच्याव नव्हे तर भारतीय स्वातंत्र्याच्या इतिहासांत अमर केलं यांत शंका नाही । '
आ)-(1) सन्मति (मराठी), अगस्त 1957 (2) भारतीय स्वातन्त्र्यलढ्यातील जैनांचे योगदान (मराठी), पृष्ठ-39
भगवान् महावीर ने हमें अहिंसा का उपदेश दिया, जो आज भी विश्व के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना 2500 वर्ष पूर्व था । विश्व में मानवता के लिए इससे बड़ा सिद्धांत नहीं हो सकता । अहिंसा का यह सिद्धांत हमारी आजादी के आन्दोलन की शक्ति बना। गांधी जी, पं0 जवाहर लाल नेहरू और इन्दिरा जी ने भी अपनी नीतियां बनाते समय जैन सिद्धांतों की ओर देखा था। हमारी विदेश नीति भी महावीर के सिद्धांतों पर ही आधारित है। चाहे निःशस्त्रीकरण की बात करें या गुट निरपेक्षता की अथवा पर्यावरण सुधार की, यही सिद्धांत हमारे सामने रहता है। जब हम चुनौतियों को देखते हैं, तो हमारे सामने एक ही रास्ता रह जाता है और वह है अहिंसा का । आज विदेशी शक्तियाँ भी महसूस करती हैं कि मानवता को बचाने के लिए अहिंसा ही एकमात्र रास्ता है।
प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी|
प्रधानमंत्री18 अप्रैल 1989 को महावीर वनस्थली के उद्घाटन पर|
प्रदत्त भाषण का अंश
स्त्रोत्र: पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम में जैन"|
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