स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेनानी मोतीचंद शाह (जैन)


 भारतीय स्वातन्त्र्य समर का मध्यकाल था वह, उन दिनों 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' और 'इंकलाब जिन्दाबाद' जैसे नारे तो दूर 'वन्दे मातरम्' जैसा सात्विक और स्वदेश पूजा की भावना के प्रतीक शब्द का उच्चारण भी बड़े जीवट की बात समझी जाती थी। जो नेता सार्वजनिक मंचो से 'औपनिवेशिक स्वराज्य' की माँग रखते थे, उन्हें गर्म दल का समझा जाता था और उनसे किसी प्रकार का सम्पर्क रखना भी खतरनाक बात समझी जाती थी ।

ऐसे समय में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्री अर्जुन लाल सेठी अपनी जयपुर राज्य की पन्द्रह सौ रुपये मासिक की नौकरी छोड़कर क्रान्ति - यज्ञ में कूद पड़े। उन्होंने जयपुर में वर्धमान विद्यालय की स्थापना की। कहने को तो यह धार्मिक शिक्षा का केन्द्र था किन्तु वहाँ क्रान्तिकारी ही पैदा किये जाते थे। 'जिस विद्यालय का संस्थापक स्वयं क्रान्तिकारी हो उस विद्यालय को क्रान्ति की ज्वाला भड़काने से कैसे रोका जा सकता है। '

सेठी जी एक बार 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा' के अधिवेशन में मुख्य वक्ता के रूप में महाराष्ट्र के सांगली शहर गये। वहाँ उनकी भेंट दो तरुणों से हुई। एक थे श्री देवचन्द्र, जो बाद में दिगम्बर जैन समाज के बहुत बड़े आचार्य, आचार्य समन्तभद्र के नाम से विख्यात हुए और जिन्होंने महाराष्ट्र में अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। दूसरे थे अमर शहीद मोतीचंद शाह |

हुतात्मा मोतीचंद का जन्म 1890 में सोलापूर (महाराष्ट्र) जिले के करकंब ग्राम में सेठ पदमसी शाह के घर हुआ। माँ का नाम गंगू बाई था। सेठ पदमसी अत्यन्त निर्धन होते हुए भी संतोष वृत्ति के धनी थे। वे न्याय से आजीविका कमाने तथा दयालु अन्तःकरण वाले सीधे-साधे छोटे से व्यवसायी थे। बालक की आँखों में मोती सी चमक देखकर ही माता ने बालक का नाम मोतीचंद रखा। परिवार की यह खुशी अधिक दिन तक स्थायी नहीं रह सकी। अल्पावस्था में ही मोतीचंद पितृच्छाया - विहीन हो गये। फलतः मामा और मौसी के घर उनका लालन-पालन हुआ । मराठी की चौथी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद पेट भरने के लिए उन्हें किसी पुरानी मिल में मजदूरी का काम करना पड़ा, पर ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी ज्ञान की प्यास जागृत रही, कुछ-कुछ अध्ययन वे करते ही रहे। व्यायाम, तैरना, लाठी चलाना आदि के साथ-साथ देशभक्तों के चरित्रों को पढ़ने का उन्हें विशेष शौक था। देश की क्रान्ति से सम्बन्धित अनेक गीत - कवितायें उन्हें मुखाग्र थीं।

इसी बीच दुधनी से पढ़ाई के लिए सोलापूर आकर रह रहे बालक देवचन्द्र ( जो बाद में समन्तभद्र महाराज बने) से मोतीचंद की मुलाकात हो गई। मुलाकात मित्रता और मित्रता प्रगाढ़ता में परिणत हुई। इस समय महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक द्वारा प्रारम्भ किये गये 'स्वदेशी आन्दोलन' का बहुत बोलबाला था। जन-सामान्य, विशेषतः युवा मन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था। जगह-जगह सभायें होती थीं, जिनमें स्वतन्त्र भारत की घोषणा और 'वन्दे मातरम्' का जयघोष होता था ।

बालक मोतीचंद और देवचंद इन समारोहों में अक्सर जाया करते थे। इन्हीं दिनों उनकी मुलाकात एक तीसरे साथी श्री रावजी देवचंद से हुई। तीनों ने मिलकर 'जैन बालोत्तेजक समाज' की स्थापना की और शुक्रवार पीठ के बड़े मंदिर के पीछे देहलान में बालकों के इकट्ठा होने का स्थान निश्चित हुआ । हरिभाई देवकरण और उनके भाई जीवराज जी भी इसमें मिल गये। धीरे-धीरे चालीस-पचास विद्यार्थियों का संगठन बन गया।

आपस में पुस्तकों के आदान-प्रदान व साप्ताहिक सभाओं आदि से विद्यार्थियों का उत्साह बढ़ता गया। मोतीचंद अपनी वाक्पटुता, निर्भीकता और गंभीर गर्जना के कारण अनायास ही इनके नेता बन गये। वे विद्यार्थियों के बीच देश - विदेश में घटने वाली घटनाओं और आदोलनों के बारे में बताते थे। मोतीचंद और देवचंद अकेले में बैठकर आंदोलन के बारे में सोचते थे। इनके बैठने के स्थान श्री कस्तूरचंद बोरामणीकर तथा कभी-कभी रावजी देवचंद के घर हुआ करते थे । विदेशी वस्त्रों का उपयोग नहीं करना, विदेशी शक्कर नहीं खाना आदि प्रतिज्ञायें ये लोग किया करते थे। सोलापूर की देखा-देखी अन्य स्थानों पर भी 'जैन बालोत्तेजक समाज' की स्थापना हुई ।

1906 के आसपास लोकमान्य तिलक स्वदेशी का प्रचार करने के लिए सोलापूर आये। एक स्वयं सेवक के नाते मोतीचंद उनसे मिले और इकट्ठी की गयी कमाई स्वदेशी प्रचार के लिए तिलक जी को समर्पित कर दी, साथ ही अपने 'बालोत्तेजक समाज' की स्थापना की जानकारी तिलक जी को दी। इसी समय तिलक जी के कर-कमलों से मैकेनिक थियेटर में 'बालोत्तेजक समाज' की विधिवत् स्थापना हुई।

मोतीचंद, देवचंद और उनके अधिकांश साथियों का जन्म जैनकुल में हुआ था । पारिवारिक संस्कार जैन धर्म से आप्लावित थे। भोगों के प्रति विरक्ति स्वाभाविक ही थी। एक दिन मोतीचंद ने आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेने का विचार अपने मन में किया और अपने लंगोटिया यार देवचंद को बताया। 'जीवन की साधना के बीच ब्रह्मचर्य ही उत्तम साधना है।' इसका विश्वास मोतीचंद से पहले देवचंद को हो चुका था, अतः उन्होंने मोतीचंद के विचारों का अन्त:करण से स्वागत किया और कुन्थलगिरि जाकर बाल ब्रह्मचारी देशभूषण, कुलभूषण भगवान् के चरणों में एक-दूसरे की साक्षी पूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया।

1910 के आसपास रावजी देवचंद मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर शिक्षा प्राप्ति हेतु बम्बई के विल्सन कॉलेज में चले गये। बाद में उन्होंनें फर्ग्युसन कॉलेज, पूना में शिक्षा प्राप्त की। मोतीचंद ने अपने ज्ञानार्जन की हवस दिन-रात किताबें पढ़कर ही पूरी की। इसी बीच 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा', सांगली के अधिवेशन का समाचार मोतीचंद ने पढ़ा और जाना कि प्रमुख व्यक्ति के रूप में जयपुर के पंडित अर्जुन लाल सेठी आ रहे हैं। सभा का अधिवेशन शोलापुर के श्री हीराचंद अमीचंद गाँधी की अध्यक्षता में होने वाला था। सेठी जी के बारे में उन दिनों बड़ी ख्याति फैल चुकी थी कि वे बी०ए० तक लौकिक शिक्षा प्राप्त अत्यन्त बुद्धिमान्, प्रतिभासम्पन्न, ओजस्वी वक्ता, लेखक, पत्रकार, अर्थसम्पन्न, धार्मिक ज्ञान प्राप्त, जैन शिक्षा प्रचार समिति नामक शिक्षण संस्था तथा बोर्डिंग चलाने वाले व्यक्ति हैं। उनसे मिलने की अभिलाषा लिये मोतीचंद और देवचंद सांगली अधिवेशन में उपस्थित हुए। सेठी जी का समाज और राष्ट्र सेवा की भावना से ओत-प्रोत व्याख्यान सुनकर दोनों तरुणों ने विचार किया कि हमारी आशा-अपेक्षायें इनके पास रहकर पूर्ण हो सकती हैं। दोनों ने अपने विचार सेठी जी को बताये, सेठी जी ने जयपुर आने को कहा ।

सब लोग एक साथ जयपुर पहुँचने की अपेक्षा धीरे-धीरे पहुँचे, ऐसा विचार कर तय हुआ कि पहिले देवचंद और माणिकचंद पहुँचे, बाद में मोतीचंद अन्य साथियों के साथ पहुँचेंगे। योजनानुसार तीनों जयपुर पहुँचे, साथ में श्री बालचंद शहा आदि भी थे। जयपुर की उक्त संस्था में कुछ राजपूत विद्यार्थी भी थे। राजस्थान के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी केशरी सिंह बारहठ के दो तेजस्वी बालक प्रताप सिंह एवं जोरावर सिंह भी वहाँ पढ़ते थे।

इसी बीच सेठी जी की मुलाकात पं० विष्णुदत्त शर्मा से हुई। शर्मा जी स्थान-स्थान पर पहुँचकर सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध व्याख्यान देने वाले एक सीधे-साधे ब्राह्मण उपदेशक जान पड़ते थे, किन्तु वास्तव में उनका कार्य था देश के स्वाधीनता युद्ध के लिए सैनिकों की भरती करना। अपने इस कार्य की पूर्ति के लिए शर्मा जी भिन्न-भिन्न स्कूलों / कालेजों और गुरुकुलों / पाठशालाओं में घूमा करते थे। इन स्थानों पर उन्हें जो भी ऐसा युवक दिखाई देता, जिसके नेत्रों में दीप्ति और मुख पर दृढ़ता होती, उसी को वे अपने पंथ में दीक्षित कर लिया करते थे।

इसी प्रकार घूमते-घामते वे एक दिन जयपुर के उक्त विद्यालय में पहुँचे, सेठी जी से मुलाकात हुई, दोनों का रास्ता एक था, दोनों ने एक दूसरे को पहिचाना, एक दूसरे की भावनाओं को अनुभव किया और परस्पर गहरे मित्र हो गये। शर्मा जी विद्यालय में क्रान्तिकारी व्याख्यान देने लगे, जो विद्यार्थियों के हृदय में भारी उथल-पुथल मचाते थे।

शर्मा जी और सेठी जी के मुख से देश की दुर्गति का हाल सुन-सुन कर इन नवयुवकों का हृदय क्षोभ और वेदना से भरता गया। उन्होंने भारत माँ को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा उठाया और क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित होने का निश्चय किया। ग्रीष्मावकाश में बारहट जी के ग्राम में जाकर गोली चलाना, लाठी चलाना आदि की शिक्षा इन नवयुवकों ने ली और क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गये ।

उस समय क्रान्तिकारी दल का काम अर्थाभाव के कारण ठप्प होता जा रहा था। अतः इन युवकों ने किसी देशद्रोही धनिक को मारकर धन लाने का निश्चय किया। बंगाल में ऐसी घटनाओं का उदाहरण इनके सामने था ही। तय हुआ कि 'निमेज' जिला - शाहाबाद ( बिहार ) के महन्त का धन हस्तगत किया जाये। इस काम के अगुआ थे पं० विष्णुदत्त शर्मा । अन्य लोगों में थे जोरावार सिंह, मोतीचंद, माणिकचंद और जयचंद । जोरावर सिंह ने ऐन मौके पर स्वयं न जाकर अपने एक साथी को भेज दिया। यद्यपि योजना यह थी कि 'महन्त के मुँह में कपड़ा भरकर चाबी ले ली जाये और तिजोरी से माल निकालकर भाग आया जाये ।' किन्तु वहाँ जाकर इन लोगों ने महन्त को मार दिया और चाबी ले ली। दुर्भाग्य ! कि तिजोरी खोलने पर वह खाली मिली। यह घटना 20 मार्च 1913 की है। घटना के बाद डकैतों की छानबीन हुई, पर कुछ पता नहीं चल सका। इधर जयपुर के विद्यालय की हालत खस्ता होने लगी थी ।

इस घटना के कुछ दिनों बाद ही सेठी जी जयपुर का विद्यालय छोड़कर इन्दौर चले गये और वहाँ त्रिलोकचंद जैन हाई स्कूल में काम करने लगे । यहाँ पर उनके साथ शिव नारायण द्विवेदी नामक एक युवक भी रहता था। एक दिन अकस्मात् ही इन्दौर की पुलिस ने इस युवक की तलाशी ली तो उसके पास कुछ क्रान्तिकारी पर्चे निकले। युवक को गिरफ्तार कर लिया गया, उसी से पुलिस को जयपुर के विद्यालय में संगठित क्रान्तिकारी दल तथा निमेज के महन्त की हत्या का सुराग हाथ लग गया ।

इधर मोतीचंद सेठी जी के साथ रोजाना की तरह घूमने निकले। मोतीचंद ने सेठी जी से प्रश्न किया 'यदि जैनों को प्राण-दण्ड मिले, तो वे मृत्यु का आलिंगन कैसे करें।' सेठी जी ने इसका उत्तर दिया ही था कि पुलिस ने घेरा डालकर दोनों को गिरफ्तार कर लिया। अब सेठी जी की समझ में आया कि मोतीचंद ऐसा प्रश्न क्यों कर रहा था। बाद में पं० विष्णुदत्त शर्मा, माणिकचंद आदि को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

अर्जुन लाल सेठी का नाम दिल्ली बम षड्यन्त्र में होने से वे सरकार की नजरों में पहले ही चढ़े थे, पर ठोस सबूत न होने से पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी। उनके गिरफ्तार होते ही हलचल मच गई। मोतीचंद की ओर से केस लड़ने के लिए उनके मामा माणिक चंद ने सोलापूर से कुछ फण्ड इकट्ठा किया। श्री अजित प्रसाद एडवोकेट से सलाह ली गई, अन्त में सेशन कोर्ट ने उन्हे फाँसी की सजा सुना दी। उच्च न्यायालय में अपील की गई पर वहाँ भी सजा को बरकरार रखा गया। पं० विष्णुदत्त शर्मा को 10 वर्ष के कालापानी की सजा मिली। अर्जुन लाल सेठी को यद्यपि सबूत के अभाव में दण्ड नहीं दिया जा सका, पर उन्हें जयपुर लाकर जेल में डाल दिया गया । विधि की विडम्बना देखिये कि जयपुर सरकार ने न तो उन्हें मुक्त ही किया और न ही उनके अपराध की सूचना ही उन्हें दी गई। अन्त में वे बेलूर जेल भेज दिये गये, जहाँ पर उन्होंने दर्शन और पूजा के लिए जैन मूर्ति न दिये जाने के कारण छप्पन दिन का निराहार व्रत किया ।

मोतीचंद जी ने जेल से अपने अंतिम दिनों में रक्त से एक पत्र * अपने मित्रों के नाम लिखा था। फाँसी से पूर्व जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि 'प्रथम मुझे फाँसी से पूर्व जैन प्रतिमा के दर्शन कराये जायें, द्वितीय मुझे दिगम्बर (नग्न) अवस्था में फाँसी दी जाये।' पर यह जेल के नियमों के प्रतिकूल होने के कारण सम्भव नहीं हुआ। फाँसी से पूर्व उनका वजन 10-11 पौण्ड बढ़ गया था। मोतीचंद जी के एक साथी सोलापूर निवासी श्री बालचंद नानचंद शहा, जो फाँसी के समय वहाँ मौजूद थे, ने उन्हें प्रात: 4 बजे से पूर्व ही भ० पार्श्वनाथ की मूर्ति के दर्शन करा दिये थे। सामायिक और तत्त्वार्थसूत्र का पाठ मोतीचंद जी ने किया और समाधिमरण का पाठ बालचंद जी ने सुनाया था । 'Who's who of Indian Martyrs, Vol. I, Page 234' के अनुसार फाँसी की तिथि मार्च 1915 है।

1951 में व्याबर से प्रकाशित 'राजस्थानी आजादी के दीवाने' पुस्तक के लेखक श्री हरिप्रसाद अग्रवाल ने मोतीचंद के साहस के सन्दर्भ में लिखा है- 'केवल एक ही घटना से उसके साहस का पता चल जाता है, जब वह क्रान्तिकारी दल का नेतृत्व कर रहा था, उन्हीं दिनों उसका ऑपरेशन हुआ, डॉक्टर की राय थी कि ऑपरेशन क्लोरोफार्म सुंघाकर किया जाये, ताकि पीड़ा न हो । किन्तु वह तो पीड़ा का प्रत्यक्ष अनुभव करने को प्रस्तुत रहता था। उसकी जिद के कारण ऑपरेशन बिना बेहोश किये ही हुआ और उसने उफ तक न की । डॉक्टर भी दाँतो तले उंगली दबाकर रह गया ।..फाँसी की रस्सी का उसने प्रसन्नतापूर्वक आलिंगन किया और मृत्यु के समय तक बलिदान की खुशी में उसका वजन कई पौण्ड बढ़ चुका था । ' ( पृष्ठ 113 - 114 )

श्री मोतीचंद और अर्जुन लाल सेठी के अन्य शिष्यों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध विप्लववादी श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल ने 'बन्दी जीवन', 'द्वितीय भाग, पृष्ठ-137 में लिखा है- 'जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने कर्तव्य की खातिर देश के मंगल के लिए सशस्त्र विप्लव का मार्ग पकड़ा था। महन्त के खून के अपराध में वे भी जब फाँसी की कोठरी में कैद थे, तब उन्होंने भी जीवन-मरण के वैसे ही सन्धिस्थल से अपने विप्लव के

* यह पत्र मराठी भाषा में है, जो 'सन्मति', दिसम्बर 1952 के अंक में छपा है। (अंक हमारे पास सुरक्षित है) सम्पादकीय नोट के अनुसार यह पत्र उन्हें मोतीचंद के मित्र श्री वा० ना०शहा से प्राप्त हुआ था । 'हुतात्मा मोतीचंद' के लेखक ब्र० माणिकचंद ज०चवरे ने हमारे नाम अपने पत्र दि० 27.9.95 में भी यही लिखा है कि यह पत्र उन्हें श्री बालचंद नानचंद शहा से पढ़ने को मिला था। दि० 24-1-96 के पत्रानुसार चवरे जी ने यह पत्र स्वयं पढ़ा है, देखा है। पत्र के लिए चवरे जी ने बहुत प्रयत्न किया पर प्राप्त नहीं हो सका है। श्री बालचंद नानचंद शहा और श्री चवरे जी का भी देहावसान हो जाने से पत्र प्राप्ति प्राय: अशक्य लगती है।

साथियों के पास जो पत्र भेजा था, उसका सार कुछ ऐसा था ' भाई मरने से डरे नहीं, और जीवन की भी कोई साध नहीं है, भगवान् जब, जहाँ, जैसी अवस्था में रखेंगे, वैसी ही अवस्था में सन्तुष्ट रहेंगे।' इन दो 'युवकों में से एक का नाम था मोतीचंद और दूसरे का नाम था माणिकचन्द्र या जयचंद । इन सभी विप्लवियों के मन के तार ऐसे ऊँचे सुर में बँधे थे, जो प्रायः साधु और फकीरों के बीच ही पाया जाता है। ' ( द्र० -‘जैन जागरण के अग्रदूत', पृष्ठ 366-67 )

कैसा आत्म-सन्तोष, कैसी निश्चिन्तता और मृत्यु के प्रति कैसी निष्कपट उपेक्षा का भाव। यह किसी जैन धर्मानुयायी में ही सम्भव है।

सेठी जी अपने इस जांबाज और वफादार शिष्य को बहुत स्नेह करते थे, इनकी मौत पर उन्हें बहुत सदमा पहुँचा । मोतीचन्द्र की पवित्र स्मृति में सेठी जी ने अपनी कन्या का विवाह महाराष्ट्र के एक युवक से इस पवित्र भावना से कर दिया था कि 'मैंने जिस प्रान्त और जिस समाज का सपूत देश को बलि चढ़ाया है, उस प्रान्त को अपनी कन्या अर्पण कर दूँ। सम्भव है उससे भी कोई मोती जैसा पुत्ररत्न उत्पन्न होकर देश पर न्योछावर हो सके !'

मोतीचंद के जयपुर विद्यालय के सहपाठी और जेल जीवन के साथी, सम्प्रति बम्बई प्रवासी, श्री कृष्णलाल वर्मा ने 'अमर शहीद श्रीयुत् मोतीचंद शाह के संस्मरण' शीर्षक से अनेक संस्मरण लिखे हैं, जो 'क्रान्तिवीर हुतात्मा मोतीचंद' पुस्तक में पृष्ठ 45 से 73 तक छपे हैं। 'सन्मति' (मराठी) के अगस्त 1957 के अंक में भी ये संस्मरण छपे हैं। उनमें से कुछ संस्मरण यहाँ प्रस्तुत हैं।

मोतीचंद ने विद्यार्थी जीवन में, जब वे क्रान्तिकारियों में शामिल हो गये थे, पर्युषण में दस उपवास किये थे। जेल में वर्मा जी ने पूछा - ' आपने उपवास क्यों किये थे?' मोतीचंद ने कहा- ' ऐसा तो कोई नियम नहीं है। कि राष्ट्रीय कार्यकर्ता धर्म कार्य न करें और यदि दूसरी दृष्टि से देखा जाये तो ये धार्मिक व्रत, उपवास उस कठोर जीवन के लिए तैयारी ही हैं, जो राष्ट्रीय सेवक के लिए आवश्यक हैं। राष्ट्रसेवक को, जो षड्यन्त्रकारी पार्टी का सदस्य हो, हर तरह की तकलीफ सहन करने की आदत डालना चाहिए। उसे भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मार या और भी सभी तरह के दुःख, जिनकी सम्भावना हो सकती है, हँसते-हँसते सहने की आदत होना चाहिए। जैनधर्म में जो बाईस परीषह बताये गये हैं, उन सभी को जो सानन्द सहता है और राष्ट्र को आजाद करने के काम में लगा रहता है, वही सच्चा राष्ट्र सेवक है, वही सच्चा साधु है, वही सच्चा त्यागी है। ' (पृष्ठ-600)

वर्मा जी के यह पूछने पर कि महन्त के समान निर्दोष व्यक्तियों को मारने से क्या मिलता है ? मोतीचंद ने कहा-' पार्टियाँ चलाने के लिए धन की जरूरत है। वह धन ऐसे व्यक्तियों से ही जबरदस्ती मारकर या लूट कर प्राप्त किया जा सकता है। यह माना कि ऐसे लोग सीधे किसी अपराध के अपराधी नहीं होते, परन्तु उनका यह अपराध क्या कम है कि वे देश के काम के लिए धन नहीं देते। अगर कोई सरकारी अधिकारी इनके पास जाता है तो बड़ी खुशी से उनके लिए थैली का मुँह खोल देते हैं, परन्तु देशभक्त की बात छोड़ो, किसी गरीब और लाचार आदमी को भी दो पैसे निकालकर देते इनकी त्योरियों पर बल पड़ जाता है।'

मैंने पूछा - 'देश में लाखों धनवान तो हैं, फिर बेचारे महंत को ही आप लोगों ने क्यों पसन्द किया?'

उन्होंने कहा- 'बड़े काम को सिद्ध करने के लिए अनेक ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं, जिनका करना सामान्यतया अपराध या अनुचित माना जाता है। जिन्होंने राज्य स्थापित किये हैं, उन्होंने सैकड़ों ही नहीं हजारों निर्दोषों की जानें ली थीं । इतिहास इस बात का साक्षी है । परन्तु आज तक क्या किसी इतिहासकार ने यह लिखा कि उन्होंने अनुचित काम किया था। समय आयगा तब हमारे काम भी उत्तम समझे जायेंगे । ' ( पृष्ठ-68) 

( फाँसी से पूर्व ) मैंने ( वर्मा जी ने पूछा-' अपने साथियों को या देशवासियों को कुछ सन्देश देना चाहते हैं? '

वे बोले "मेरा फाँसी पर लटकना ही मेरा सन्देश होगा। मुझे फाँसी क्यों हुई? इसका कारण जानकर देशभक्त लोग कहेंगे, 'एक निर्दोष मारा गया', अंग्रेज के गुलाम कहेंगे- 'जैसा किया वैसा पाया' । सम्भव है कुछ जैनी लोग कहेंगे, 'जैनियों की नाक कटवा दिया।' पर जवान लोग, जिनके खून गरम हैं और जो अपनी जननी जन्मभूमि से प्यार करते हैं, कुछ न बोलेंगे, मन ही मन संकल्प करेंगे कि, हम जब तक इस खून का बदला न लेंगे, अंग्रेजों को भारत से न निकालेंगे, तब तक चैन से न बैठेंगे।' उनकी यह प्रतिज्ञा मुझे स्वर्ग में भी संतोष देगी । ' 

आ():- (1)Who's. who of Indian Martyrs. vol.1, Page 234 (2) जै० स० रा० अ० ( 3 ) जैन जागरण के अग्रदूत, (4) क्रान्तिवीर हुतात्मा मोतीचन्द्र (5) सन्मति (मराठी), दिसम्बर 1952 तथा अगस्त 1957 के अंक (6) राजस्थानी आजादी के दीवाने, पृष्ठ बी० 113 114 (7) पं० माणिक चंद जी चंवरे, कारजां के अनेक पत्र।



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अहिंसक युद्ध

'अहिंसक युद्ध' परस्पर विरोधी बात लगती है यह, पर इतिहास में एक ऐसा भी युद्ध हुआ जो पूर्णत: अहिंसक था। ऋषभदेव वैराग्य धारण कर जब तपस्यार्थ वन चले गये तब उनके दो पुत्रों भरत और बाहुबली के बीच राज्य विस्तार की सीमा को लेकर युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गईं। तब दोनों पक्षों के मंत्रियों ने परस्पर विचार किया कि ये दोनों भाई बलिष्ठ हैं, अतः क्यों न आपस में लड़कर हार-जीत का निर्णय कर लें, व्यर्थ सेना क्यों मारी जावे। मंत्रियों का प्रस्ताव मान दोनों में मल्ल, जल और दृष्टि युद्ध हुए, जिनमें बाहुबली विजयी हुए, पर उन्होंने जीतकर भी सन्यास ले लिया । अहिंसा के बल पर स्वराज्य प्राप्ति से इस घटना का औचित्य सिद्ध हो जाता है।

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स्त्रोत्र: पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम में जैन"|

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