स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेनानी अमरचंद बांठिया (जैन)
अमरचंद बांठिया के पूर्वज बांठिया गोत्र के आदि पुरुष श्री जगदेव पंवार (परमार) क्षत्रिय ने 9-10वीं शताब्दी ( एक अन्य मतानुसार जगदेव के पुत्र या पौत्र माधव देव / माधवदास ने 12वीं शताब्दी) में जैनाचार्य भावदेव सूरि से प्रबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार किया था और ओसवाल जाति में शामिल हुए थे। कुछ इतिहासकार विक्रम की 12 वीं शताब्दी में रणथम्भौर के राजा लालसिंह पँवार के पुत्रों द्वारा जैनाचार्य विजय बल्लभ सूरि से प्रतिबोध पाकर जैन धर्म अंगीकार कर लेने से उनके ज्येष्ठ पुत्र बंठ से बांठिया गोत्र की उत्पत्ति मानते हैं। कुछ इतिहासकार माधवदेव द्वारा दानवीरता की अनुकरणीय परम्परा का श्रीगणेश करने के कारण ( धनादि को बांटने के कारण ) बांटिया - बांठिया उपनाम की प्रसिद्धि मानते हैं। स्पष्ट है कि अमरचंद जी को दानवीरता का गुण जन्मजात ही मिला था। अमरचंद बांठिया का परिवार व्यापार / व्यवसाय हेतु सन् 1835 (वि०सं० 1892) में फलवृद्धि (फलौदी) में भूमि से प्रकट हुई चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा के चल समारोह में अनेक संघपतियों के परिवार के साथ बीकानेर से ग्वालियर आया और यहीं बस गया। प्रतिमा की प्रतिष्ठा ग्वालियर के हृदय स्थल सर्राफा बाजार के शिखरबन्द जिनालय में संवत् 1893 में हुई थी !
अमरचंद के दादा का नाम खुशालचंद एवं पिता का नाम अबीरचंद था। अमरचंद अपने सात भाइयों (श्री जालमसिंह, सालमसिंह, ज्ञानचंद, खूबचंद, सबलसिंह, मानसिंह, अमरचंद) में सबसे छोटे थे।
अमरचंद बांठिया में धर्मनिष्ठा, दानशीलता, सेवाभावना, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता आदि गुण जन्मजात थे, यही कारण था कि सिन्धिया राज्य के पोद्दार श्री वृद्धिचंद संचेती, जो जैन समाज के अध्यक्ष भी थे, ने अमरचंद को ग्वालियर राज्य के प्रधान राजकोष गंगाजली के कोषालय पर सदर मुनीम ( प्रधान कोषाध्यक्ष ) बनवा दिया। उस समय सिन्धिया नरेश 'मोती वाले राजा' के नाम से जाने जाते थे। 'गंगाजली' में अटूट धन संचय था, जिसका अनुमान स्वयं सिंधिया नरेशों को भी नहीं था। विपुल धनराशि से भरे इस खजाने पर चौबीसों घण्टे सशस्त्र पुलिस बल का कड़ा पहरा रहता था। कहा जाता है कि ग्वालियर राजघराने में उन दिनों गोढियों से यह आन चली आ रही थी कि न तो कोई राजा अपने राजकोष की सम्पत्ति को देख ही सकता था और न उसमें से कुछ निकाल ही सकता था, अत: गंगाजली की सदैव वृद्धि होती रहती थी। इस अकूत धन संचय को कोषाध्यक्ष के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था ।
अमरचंद बांठिया इस खजाने के रक्षक ही नहीं ज्ञाता भी थे, वे चाहते तो अपने लिए मनचाही रत्न राशियाँ निकालकर कभी भी धनकुबेर बन सकते थे। पर बांठिया जी तो जैन धर्म के पक्के अनुयायी थे, जो राजकोष का एक पैसा भी अपने उपयोग में लाना घोर पाप समझते थे।
बांठिया जी की दैनिक चर्या बड़ी नियमित थी । प्रातः उठकर जिनेन्द्र देव की अर्चना और यदि कोई मुनि / साधक विराजमान हों तो उनके उपदेश सुनना, समय पर कोषालय जाना, सूर्यास्त से पूर्व भोजन और रात्रि नौ बजे शयन उनके यान्त्रिक जीवन के अंग थे।
'गंगाजली' के खजांची पद को सुशोभित करने के कारण बांठिया जी का आत्मीय परिचय बड़े-बड़े राज्याधिकारियों से हो जाना स्वाभाविक ही था। सेना के अनेक अधिकारियों का आवागमन कोषालय में प्राय: होता रहता था। बांठिया जी के सरल स्वभाव और सादगी ने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया था । चर्चा - प्रचर्चा में अंग्रेजों द्वारा भारतवासियों पर किये जा रहे अत्याचारों की भी चर्चा होती थी। एक दिन एक सेनाधिकारी ने कहा कि आपको भी भारत माँ को दासता से मुक्त कराने के लिए हथियार उठा लेना चाहिए।' बांठिया जी ने कहा- 'भाई अपनी शारीरिक विषमताओं के कारण में हथियार तो नहीं उठा सकता पर समय आने पर ऐसा काम करूँगा, जिससे क्रांन्ति के पुजारियों को शक्ति मिलेगी और उनके हौसले बुलन्द हो जावेंगे।
ध्यातव्य है कि अंग्रेजों के विरुद्ध जहाँ कहीं भी युद्ध छिड़ता था, वे भारतीय सैनिकों को ही सर्वप्रथम युद्ध की आग में झोंक देते थे । एक वयोवृद्ध सन्यासी ने अमरचंद बांठिया से चर्चा में 1857 के पूर्व की एक घटना सुनाते हुए कहा कि - 700 बंगाली सैनिकों की एक रेजीमेन्ट को अंग्रेज अफसरों ने इसलिए गोलियों भून दिया था, कि उन्होंने बैलों पर चढ़कर जाने से मना कर दिया था।' ज्ञातव्य है कि भारतीय संस्कृति में गाय हमारी माता है और उसके पुत्र बैल पर चढ़कर जाना पाप माना जाता है। सैनिकों ने इसी कारण बैल की पीठ पर बैठने से मना कर दिया था। यह भी ध्यातव्य है कि गाय/बैल की चर्बी लगे कारतूस को मुंह से खोलने के लिए मना करने पर हजारों निरपराध सैनिकों को अंग्रेज अधिकारियों द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया था।
ऐसी ही अनेक घटनाओं को सुन-सुनकर बांठिया जी का हृदय भी देश की आजादी के लिए तड़फडाने लगा। इधर मुनिराज के प्रवचन में भी उन्होंने एक दिन सुना कि 'जो दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दें, उसी का जन्म सार्थक है, वह मरणोपरान्त अमर रह सकता है।' यह सुनकर बांठिया जी का निश्चय दृढ से दृढतर और दृढतर से दृढतम हो गया । उन्होंने तय किया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए मुझे जो भी समर्पित करना पड़े, करूँगा। यह अवसर शीघ्र ही उनके सामने आ गया।
1857 की क्रान्ति के समय महारानी लक्ष्मीबाई उनके सेना नायक राव साहब और तात्या टोपे आदि क्रान्तिवीर ग्वालियर के रणक्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध डटे हुए थे, परन्तु लक्ष्मीबाई के सैनिकों और ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों को कई माह से वेतन नहीं मिला था, न ही राशन- पानी का समुचित प्रबन्ध हो सका था। तब बांठिया जी ने अपनी जान की परवाह न करते हुए क्रान्तिकारियों की मदद की और ग्वालियर का राजकोष लक्ष्मीबाई के संकेत पर विद्रोहियों के हवाले कर दिया।
ग्वालियर राज्य से सम्बन्धित 1857 के महत्त्वपूर्ण दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली, राजकीय अभिलेखागार, भोपाल आदि में उपलब्ध हैं। डॉ० जगदीश प्रसाद शर्मा, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली ने इन दस्तावेजों और अनेक सरकारी रिकार्डों के आधार पर विस्तृत विवरण 'अमर शहीद : अमरचंद बांठिया' पुस्तक में प्रकाशित किया है, जिसके अनुसार- 1857 में क्रान्तिकारी सेना जो अंग्रेजी सत्ता को देश
से उखाड़ फेंकने हेतु कटिबद्ध होकर ग्वालियर पहुँची थी, राशन पानी के अभाव में उसकी स्थिति बड़ी ही दयनीय हो रही थी। सेनाओं को महीनों से वेतन प्राप्त नहीं हुआ था। 2 जून 1858 को राव साहब ने अमरचंद बांठिया को कहा कि उन्हें सैनिकों का वेतन आदि भुगतान करना है, क्या वे इसमें सहयोग करेंगें अथवा नहीं ? ( ग्वालियर रेजीडेंसी फाइल, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली ) तत्कालीन परिस्थितियों में राजकीय कोषागार के अध्यक्ष अमरचंद बांठिया का निर्णय एक महत्त्वपूर्ण निर्णय था, उन्होंने वीरांगना लक्ष्मीबाई की क्रान्तिकारी सेनाओं के सहायतार्थ एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया जिसका सीधा सा अर्थ उनके अपने जीवन की आहुति से था । अमरचंद बांठिया ने राव साहब के साथ स्वेच्छापूर्वक सहयोग किया तथा राव साहब प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ग्वालियर के राजकीय कोषागार से समूची धनराशि प्राप्त करने में सफल हो सके। सेन्ट्रल इण्डिया ऐजेंसी आफिस में ग्वालियर रेजीडेंसी की एक फाइल में उपलब्ध विवरण के अनुसार '5 जून 1858 के दिन राव साहब राजमहल गये तथा अमरचंद बांठिया से 'गंगाजली' कोष की चाबियां लेकर उसका दृश्यावलोकन किया। तत्पश्चात् दूसरे दिन जब राव साहब बड़े सबेरे ही राजमहल पहुँचे तो अमरचंद उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे। गंगाजली कोष से धनराशि लेकर क्रान्तिकारी सैनिकों को 5-5 माह का वेतन वितरित किया गया। '
महारानी बैजाबाई की सेनाओं के सन्दर्भ में भी ऐसा ही एक विवरण मिलता है। जब नरबर में बैजाबाई की फौज संकट की स्थिति में थी, तब उनके फौजी भी ग्वालियर आकर अपने- अपने घोड़े तथा 5 महीने की पगार लेकर लौट गये। इस प्रकार बांठिया जी के सहयोग से संकट ग्रस्त फौजों ने राहत की सांस ली। अमरचंद बांठिया से प्राप्त धनराशि से बाकी सैनिकों को भी उनका वेतन दे दिया गया (ग्वालियर रेजीडेंसी फाइल, 1261, राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली ) । 'हिस्ट्री ऑफ दी इण्डिया म्यूटिनी, ' भाग-2 के अनुसार भी अमरचंद बांठिया के कारण ही क्रान्तिकारी नेता अपनी सेनाओं को पगार तथा ग्रेच्युटी के भुगतान के रूप में पुरस्कृत कर सके थे । (डा० जगदीश प्रसाद शर्मा का उक्त लेख ) ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 1857 की क्रान्ति के समय यदि अमरचंद बांठिया ने क्रान्तिवीरां की इस प्रकार आर्थिक सहायता न की होती, तो उन वीरों के सामने कैसी स्थिति उत्पन्न होती, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती । क्रान्तिकारी सेनाओं को काफी समय से वेतन नहीं मिला था, उनके राशन- पानी की भी व्यवस्था नहीं हो रही थी । इस कारण निश्चय ही क्रान्तिकारियों के संघर्ष में क्षमता, साहस और उत्साह की कमी आती और लक्ष्मीबाई, राव साहब व तात्या टोपे को संघर्ष जारी रखना कठिन पड़ जाता । यद्यपि बांठिया जी के साहसिक निर्णय के पीछे उनकी अदम्य देशभक्ति की भावना छिपी हुई थी, परन्तु अंग्रेजी शब्दकोष में तो इसका अर्थ था " देशद्रोह" या "राजद्रोह" और उसका प्रतिफल था " सजा-ए-मौत" ।
अमरचंद बांठिया से प्राप्त इस सहायता से क्रान्तिकारियों के हौसले बुलंद हो गये और उन्होंने अंग्रेजी सेनाओं के दाँत खट्टे कर दिये और ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। बौखलाये हुए ह्यूरोज ने चारों ओर से ग्वालियर पर आक्रमण की योजना बनाई।
योजनानुसार ह्यूरोज ने 16 जून को मोरार छावनी पर पूरी शक्ति से आक्रमण किया। 17 जून को ब्रिगेडियर स्मिथ से राव साहब व तात्या टोपे का कड़ा मुकाबला हुआ। लक्ष्मीबाई इस समय आगरा की तरफ से आये सैनिकों से मोर्चा ले रही थीं। दूसरे दिन स्मिथ ने पूरी तैयारी से फिर आक्रमण किया। रानी लक्ष्मीबाई
ने अपनी दो सहायक सहेलियों के साथ पुरुषों की वेश-भूषा में आकर सेना की कमान सँभाली। युद्ध निर्णायक हुआ, जिसमें रानी को संगीन गोली एवं तलवार से घाव लगे तथा उनकी सहेली की भी गोली से मृत्यु हो गयी। यद्यपि आक्रमणकर्ताओं को भी रानी के द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया, किन्तु घावों से वे मूर्च्छित हो गईं। साथियों द्वारा उन्हें पास ही बाबा गंगादास के बगीचे में ले जाया गया, जहाँ वे वीरगति को प्राप्त हुईं। शीघ्र ही उनका तथा सहेली का दाह संस्कार कर दिया गया।
लक्ष्मीबाई के इस गौरवमय ऐतिहासिक बलिदान के चार दिन बाद ही 22 जून 1858 को ग्वालियर में ही राजद्रोह के अपराध में न्याय का ढोंग रचकर लश्कर के भीड़ भरे सर्राफा बाजार में ब्रिगेडियर नैपियर द्वारा नीम के पेड़ से लटकाकर अमरचंद बांठिया को फाँसी दे दी गई।
बांठिया जी की फांसी का विवरण ग्वालियर राज्य के हिस्टोरिकल रिकार्ड में उपलब्ध दस्तावेज के आधार पर इस प्रकार है- 'जिन लोगों को कठोर दंड दिया गया उनमें से एक था सिन्धिया का खजांची अमरचंद बांठिया, जिसने विद्रोहियों को खजाना सौंप दिया था। बांठिया को सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ से टाँगकर फाँसी दी गई और एक कठोर चेतावनी के रूप में उसका शरीर बहुत दिनों (तीन दिन ) तक वहीं लटकाये रखा गया । '
इस प्रकार इस जैन शहीद ने आजादी की मशाल जलाये रखने के लिए कुर्बानी दी, जिसका प्रतिफल हम आजादी के रूप में भोग रहे हैं। ग्वालियर के सर्राफा बाजार में वह नीम आज भी है। इसी नीम के नीचे अमरचंद बांठिया का एक स्टेच्यू हाल ही में स्थापित किया गया है।
आ - ( 1 ) सन् सतावन के भूले-बिसरे शहीद, भाग - 2, पृ० 49-51 ( 2 ) म0 स0, 15 अगस्त 1987, पृष्ठ अ 69-71 (3) अमर शहीद अमर चंद बांठिया (4) शोधादर्श, फरवरी 1987 ( 5 ) जैन प्रतीक, जून 1996 (6) इ० अ० ओ० प्रथम खण्ड, पृष्ठ 381 (7) The Martyrs, Page 31-33 (8) अमृतपुत्र, पृष्ठ 29 एवं 75ए ( 9 ) नई दुनियां, ( इन्दौर ) 11-8-1997 एवं 3-9-1997, (10) चौथा संसार ( इन्दौर ) 11-8-1997
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेठ अमरचंद चंद बांठिया https://www.youtu.be/grpYNs6NzaI
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
भारतीय संविधान में राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सम्मान की भावना
अनुच्छेद 51 (क)
भारतीय नागरिकों के मूल कर्तव्य
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-
(क) संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, आदर करें, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करें
(ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखें और उनका पालन करें,
(ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखें,
(घ) देश की रक्षा करें और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
स्त्रोत्र: पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम में जैन"|
Comments
Post a Comment