स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेनानी कुमारी जयावती संघवी एवं नाथालाल शाह उर्फ नत्थालाल शाह

प्रथम कहानी

अहमदाबाद (गुजरात) की कुमारी जयावती संघवी भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन की वह दीपशिखा थीं जो अपना पूरा प्रकाश अभी दे भी नहीं पायीं थीं कि जीवन का अवसान हो गया । जयावती का जन्म 1924 में अहमदाबाद में हुआ था। 5 अप्रैल 1943 को अहमदाबाद नगर में ब्रिटिश शासन के विरोध में एक विशाल जुलूस निकाला जा रहा था । प्रमुख रूप से यह जुलूस कॉलेजों के छात्र-छात्राओं का ही था। इसमें प्रमुख भूमिका जयावती संघवी निभा रही थीं। जुलूस आगे बढ़ता जा रहा था, पर यह क्या ? अचानक पुलिस ने जुलूस को तितर-बितर करने के लिए आँसू गैस के गोले छोड़ना प्रारम्भ कर दिया। स्वाभाविक था कि गोले आगे को छोड़े गये, अतः नेतृत्व करती जयावती पर इस गैस का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उनकी मृत्यु हो गयी।

आ) (1) क्रान्ति कथाएँ, पृ० 808 (2) शोधादर्श, फरवरी 1987


"मैं नहीं सारा राष्ट्र जैन है": श्रीमती इन्दिरा गांधी

बात फरवरी, 1981 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी श्रवणबेलगोला में 'भगवान् बाहुबली महामस्तकाभिषेक समारोह' के अवसर पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर दिल्ली लौट आईं थीं। संसद में बहस के दौरान कुछ संसद सदस्यों ने अनकी इस यात्रा पर आपत्ति की तो श्रीमती गाँधी ने कहा - " मैं महान् भारतीय विचारों की एक प्रमुख धारा के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने वहाँ गई थी । जिसने भारतीय इतिहास व संस्कृति पर गहरा प्रभाव छोड़ा है और स्वतन्त्रता संग्राम में अपनाए गए तरीके भी इससे प्रभावित हुए हैं। गाँधी जी भी जैन तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा व अपरिग्रह के सिद्धान्तों से प्रभावित हुए थे।"

इस पर एक ससंद सदस्य ने व्यंग्य करते हुए प्रश्न किया कि - 'क्या आप जैन हो गईं हैं?' तब श्रीमती गाँधी ने गर्जना के साथ उत्तर दिया- " केवल मैं ही नहीं सारा राष्ट्र जैन है, क्योंकि हमारा राष्ट्र अहिंसावादी है और जैन धर्म अहिंसा में विश्वास रखता है। जैन धर्म के आदर्श के रास्ते को हम नहीं छोड़ेंगे।" यह सुनकर प्रश्नकर्ता बगलें झाँकने लगे।


द्वितीय कहानी 

भारतीय स्वातन्त्र्य समर में 1942 का 'भारत छोड़ो आन्दोलन' निर्णायक सिद्ध हुआ। इसी आन्दोलन के एक शहीद थे श्री नाथालाल या नत्थालाल शाह । नत्थालाल का जन्म अहमदाबाद के निकटस्थ ग्राम रामपुरा में श्री सोमचन्द्र शाह के घर 1923 में हुआ था। अपने छात्र जीवन में उन्होंने आजादी के आन्दोलन में भाग लिया। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई, परिणाम स्वरूप अगस्त 1942 में उन्हें जेल में डाल दिया गया, जहाँ 9 नवम्बर 1943 को उन्होंने शहादत प्राप्त की। 

आ) (1) क्रान्ति कथायें, पृष्ठ 1142, ( 2 ) शोधादर्श, फरवरी 1987


सत्य से भिन्न कोई परमेश्वर है, ऐसा मैंने कभी अनुभव नहीं किया। यदि इन प्रकरणों के पन्ने - पन्ने से यह प्रतीति न हुई हो कि सत्यमय बनने का एक मात्र मार्ग अहिंसा ही है, तो मैं इस प्रयत्न को व्यर्थ समझता हूँ। प्रयत्न चाहे व्यर्थ हो, किन्तु वचन व्यर्थ नहीं हैं। मेरी अहिंसा सच्ची होने पर भी कच्ची है, अपूर्ण है। अतएव हज़ारों सूर्यों को इकट्ठा करने से भी जिस सत्य रूपी सूर्य के तेज का पूरा माप नहीं निकल सकता, सत्य की मेरी झांकी ऐसे सूर्य की केवल एक किरण के दर्शन के समान ही है । आज तक के अपने प्रयोगों के अन्त में मैं इतना तो अवश्य कह सकता हूँ कि सत्य का संपूर्ण दर्शन संपूर्ण अहिंसा के बिना असंभव है।

महात्मा गांधी (आत्मकथा, पृष्ठ - 431 )

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स्तोत्र: पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम में जैन" 

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