स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेनानी अण्णा पत्रावले
"अध्यापको! नौकरियाँ छोड़ दो और देश को स्वतन्त्र कराने के लिए क्रान्ति कार्य में शामिल हो जाओ। 'अंग्रेजो यहाँ से भागो।' ऐसी घोषणा कर अंग्रेजों को जला दो।" अपनी तिमाही परीक्षा की कापी में यह लिखकर 1942 के आन्दोलन में कूद पड़ने वाले 17 वर्षीय नौजवान अमर शहीद अण्णा पत्रावले या अण्णासाहेब पत्रावले को आज हम भले ही भूल गये हों, पर भारतीय स्वातन्त्र्य समर के इतिहास में उनका नाम सदा अमर रहेगा।
1942 का 'भारत छोड़ो आन्दोलन' एक ऐसा निर्णायक आन्दोलन था, जिसमें हजारों नहीं लाखों की संख्या में नौजवान विद्यार्थी अपनी पढ़ाई छोड़कर कूद पड़े थे। 'करो या मरो' उनका मूल मंत्र था। इसी आन्दोलन में भारत माँ पर अपना सर्वस्व समर्पण करने वाले अण्णा साहब भी शहीद हो गये थे।
अण्णा पत्रावले का जन्म 22 नवम्बर 1925 को हातकणंगले, जिला-सांगली (महाराष्ट्र) में अपने नाना के घर एक जैन परिवार में हुआ। माँ इन्दिरा उस दिन सचमुच इन्दिरा - लोकमाता बन गईं जब अण्णा साहब ने उनकी कोख से जन्म लिया। पिता एगमंद्राप्पा व्यंकाप्पा उस दिन बहुत प्रसन्न थे। नाना के घर बधाईयाँ बज रहीं थीं। अण्णा साहब बचपन से ही होनहार, स्वावलम्बी और स्वातन्त्र्य - प्रिय बालक थे। उनकी बुद्धिमत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने हाई स्कूल छात्रवृत्ति प्राप्त की थी। प्रतिदिन व्यायाम करना उनका शौक था, जिसके कारण उनका शरीर सुदृढ़ था और चेहरे पर विशेष कान्ति ।
अंग्रेजी की चौथी कक्षा में वार्षिक परीक्षा सिर पर होने पर भी उन्होंने फरवरी में महात्मा गाँधी के हरिजन साप्ताहिक से संगृहीत चुनिंदा लेखों की छोटी-सी पुस्तक पढ़ी। यहीं से अण्णा साहब के विचार क्रान्ति में बदल गये। वे देश को आजाद कराने के लिए छटपटाने लगे। अगले वर्ष अगस्त में तिमाही परीक्षा के पेपर में उक्त वाक्य (अध्यापको ! ) लिखकर चले आये और क्रान्ति - यज्ञ में कूद पड़े।
1942 में सांगली स्टेशन चौक की सभा पर सरकार ने गोलीबारी की। अनेक लोग घायल हुए। घायलों की सेवा सुश्रूषा का गुरुतर भार कौन ले ? यह यक्ष प्रश्न सबके सामने मुँह बाये खड़ा था | अण्णा साहब आगे बढ़े और उन्होंने कहा- 'यह कार्य हम करेंगे।' पुलिस को जब पता चला तो पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट ने उनके पिता पर बढ़े जुल्म ढाये, यहाँ तक कि उनका घर - बार तक जब्त करने की धमकी दी, पर भारत मैया के चरणों में ही अपने जीवन को समर्पित करने वाले क्या ऐसी धमकियों से डरे हैं? अण्णा साहब डरे नहीं, अपितु और अधिक खुलकर क्रान्तिकारियों का साथ देने लगे, वे क्रान्तिकारियों की गोपनीय बैठकों में भी शरीक होने लगे।
सांगली की बुरुड गली में क्रान्तिकारियों की एक बैठक चल रही थी। अण्णा साहब भी इस बैठक में मौजूद थे। पुलिस को किसी प्रकार इसकी भनक लग गई। सूँघती हुई पुलिस पहले गली और फिर मकान तक पहुँच गई। अचानक छापा मारा गया, क्रान्तिकारियों को पकड़ लिया गया और उन्हें सात महीने की सजा देकर सांगली जेल में बन्द कर दिया गया। इसी समय श्री बसन्त दादा पाटिल (जो बाद में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने) भी इसी जेल में आये।
'जेल की दारुण यातनाओं के भीषण कष्ट को तो किसी तरह दबाया जा सकता है, पर दिल में देश को आजाद कराने की जो क्रान्ति-ज्वाला जल रही है, उसकी जलन को दबाया जाना सम्भव नहीं।' जेल में बन्द इन क्रान्तिकारियों को भी चैन नहीं था, वे किसी भी कीमत पर बाहर निकलकर क्रान्ति की ज्वाला को प्रज्ज्वलित रखना चाह रहे थे। वे जानते थे कि भागने पर पकड़े गये तो मौत के सिवा कुछ नहीं मिलेगा, पर उनका मानना था कि हमारी मौत के बाद भी देश आजाद हो जाये तो ऐसी मौत सार्थक है।
सोलह क्रान्तिकारियों ने जेल से भागने की योजना बनाई। योजनानुसार लघुशंका का बहाना बनाकर पहरेदार को दरवाजा खोलने को कहा गया। दरवाजा खुलते ही पहरेदार की बन्दूक छीन ली गई और क्रान्तिकारी जेल की दीवार से छलांग लगाकर भागे। इधर शोर-शराबा हुआ। पता लगते ही पुलिस भी पीछे पीछे भागी । क्रान्तिकारियों में कोई कृष्णा नदी के पानी में डुबकी लगा गया तो कोई सांगलवाडी की ओर भागा । कुछ हरिपुर की ओर प्रयाण कर गये। अण्णा साहब को तैरना नहीं आता था अतः वे समडोली की ओर भागे। जुलाई का महीना और बरसात के कारण गीली मिट्टी। अण्णा साहब के पैर मिट्टी में सन गये थे, दौड़ने की बात तो दूर चलने में भी परेशानी हो रही थी। तभी धायं... धायं .....गोली चली और अण्णा साहब वहीं शहीद हो गये। वह क्रूर दिन था 24 जुलाई 1943 ई0
आजादी के बाद सांगली के एक चौक को 'हुतात्मा अण्णा पत्रावले चौक' नाम दिया गया है और यहीं हाईस्कूल के समीप उनकी प्रतिमा (स्टेच्यू ) लगी है।
Who's who of Indian Martyres, Vol. I, Page 272 पर अण्णा साहब पत्रावले के सन्दर्भ में लिखा गया है- 'Took part in the Quit India Movement (1942 ). Arrested and sentenced to a term of imprisonment. shot and killed on July 24, 1943, while trying to escape from the Sangli Jail.
आ - (1) Who's who of Indian Martyres, Vol. I, Page 271-272 (2) सन्मति ( मराठी ), अगस्त 1957
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गांधी जी के जीवन में प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत श्रीमद् रायचन्द्र का गहरा प्रभाव था। जब दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी को हिन्दू धर्म पर अनेक शंकाएँ हुईं और उनकी आस्था डिगने लगी तब अपनी लगभग 33 शंकाएँ गांधी जी ने रायचन्द्र को भेजी। राजचन्द्र जी ने उनके जो उत्तर दिए उनसे गांधी जी की सत्य और अहिंसा में दृढ़ आस्था हो गई। स्वयं गांधी जी ने लिखा है- 'मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डालने वाले आधुनिक पुरुष तीन हैं; रायचन्द भाई ने अपने सजीव सम्पर्क से, टॉलस्टाय ने 'बैकुण्ठ तेरे हृदय में' नामक अपनी पुस्तक से और रस्किन ने 'अन्टु दिस लास्ट' सर्वोदय नामक पुस्तक से मुझे चकित कर दिया।" (आत्मकथा, पृ० 76 )
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