जैन संस्कृति- डिजिटल युग में फिल्म निर्माण की प्रासंगिकता

 


बीते कुछ दशकों तथा हाल के दस वर्षों से लेकर वर्तमान समय में वीडियो फिल्म्स या चलचित्र (फिल्म मूवी या सिनेमा) के द्वारा समाज के समक्ष विभिन्न धार्मिक सामाजिक राष्ट्र-हित विषयों का प्रचार-प्रसार करने का एक महत्वपूर्ण एवं सरल विकल्प और माध्यम के रूप में विकसित हुआ है|

इक्कीसवीं सदी में मीडिया और फिल्म का सामाजिक प्रभाव अत्यंत गहरा एवं दूरगामी है| समाज में युवा एवं मध्यम आयु के वर्ग (जिन्होंने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करी) में पुस्तकों और ग्रंथों के पठन-पाठन की रुचि में निरंतर गिरावट देखी जा रही है| जैन अजैन दोनो ही वर्ग के धार्मिक एवं सामान्य परंतु शिक्षित अनुयाई आम पुस्तक ग्रंथ और शास्त्रों को पढ़ने में रुचि कम रखने लगे हैं| इंटरनेट एवं डिजिटल युग के आगमन के कारण यह वर्ग समस्त धार्मिक सांस्कृतिक शास्त्रीय सामग्री कंप्यूटर या मोबाइल फोन पर ही पढ़ना देखना सुनना चाहता है| या फिर विभिन्न विषयों पर यूट्यूब विडियोज और वीडियो डॉक्यूमेंट्री देखना पसंद करते हैं| जिसे कभी भी कहीं भी देखा सुना जा सकता है और इसके लिए जिनालय या घर के एक उक्त स्थान में जाकर आसन पर बैठने की आवश्यकता भी नहीं हो| धीरे-धीरे जैन समाज के इस वर्ग में पुस्तकों को हाथ में लेकर कुछ समय पढ़ना और चिंतन मनन करना एकदम नीरस प्रतीत होने लगा है| अतः यह परंपरा समाप्ति की ओर अग्रसर है| केवल मुनि संघों एवं विद्वानों के बीच ही सिमट कर रह गई है यह स्वाध्याय पठन पाठन की परंपरा|

जैन समाज के दोनो ही पंथों में यानी दिगंबर एवं श्वेतांबर समाज में स्वाध्याय की परंपरा दीर्घ समय से अस्तित्व में है| लेकिन वर्तमान समय के सूचना एवं तकनीकी विकास के कारण दोनो ही पंथों के अनुयायियों में जैन शास्त्र या ग्रंथ का पाठ स्वाध्याय तत्पश्चात चिंतन मनन करना| मानो इस अमूल्य सांस्कृतिक पद्धति पर पूर्ण रूप से पूर्ण विराम लग चुका है| कटु वाक्य परंतु सत्य| दोनो ही पंथों में समस्या सामान्य रूप से विद्धमान है|

ऐसा क्यों हो रहा है? जैन संस्कृति में एक पंक्ति को दिन प्रतिदिन निरंतर उपयोग में लाया जाता है, "द्रव्य काल क्षेत्र"| यह एक अमिट सत्य है और जिन संस्कृति या ज्ञान को इसके अभाव में समझना असंभव सा है| वर्तमान कलयुग अथवा पंचम काल या यूं कहें मशीनी-यांत्रिक युग में विज्ञान का संपूर्ण मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बोलबाला है| किसी भी प्रकार की जानकारी या ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए विज्ञान ने इंटरनेट का अविष्कार किया| तो कुछ समय पश्चात वेबसाइट्स पोर्टल उसके साथ सोशल मीडिया यूट्यूब फेसबुक इंस्टाग्राम व्हाट्सएप ब्लॉगिंग OTT और न जाने कितने प्रकार के माध्यम आज के ग्लोबल एवं भारतीय समाज को सरलता से उपलब्ध हैं| सिनेमा या थिएटर तो पहले से ही अपनी जड़ें शक्तिशाली कर चुके हैं| फिर वह देश भारत हो या अमेरिका|

इस वैश्विक आधुनिक परिवर्तन के परिपेक्ष्य में जैन समाज एक जटिल समस्या से जूझ रहा है| जैसा ऊपर लिखा गया है की जैन समाज के सामान्य श्रावक श्राविकाओं में शास्त्रों को पढ़ने की परंपरा विलुप्त हो रही है| तो क्या हम सब हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएं! और जो रहा है उसे न चाहते हुए भी स्वीकार लें?

दिगंबर जैन संस्कृति की ज्ञान पेटी में असंख्य ज्ञान का भंडार उपलब्ध है| इस ज्ञान का संपूर्ण विश्व में प्रचार प्रसार करना अत्यंत आवश्यक है| इससे भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्र को अत्यधिक बौद्धिक बल प्राप्त होगा| भारत को विश्व गुरु बनाने में अत्यंत सहायक होगा यह प्रयत्न| वर्तमान समय में दिगंबर मुनिराज एवं आर्यिका-साध्वी के विभिन्न संघों ने ज्ञान के भंडार को निरंतर अध्ययन करते हुए सरलता से संपूर्ण समाज को जागृत और ज्ञानवान किया है| यह कार्य उनके दिन प्रतिदिन प्रवचनों और लेख लेखनी से संभव होता है| वह दिगंबर आगम शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तत्पश्चात आम जैन समाज को इस ज्ञान से अवगत करवाते हैं|

श्वेतांबर जैन समाज ने नए डिजिटल युग को दोनो हाथों से नमस्कार किया है| उनके समाज में भी दिगंबरो की भांति आगम शास्त्रों और ज्ञान का भंडार असंख्य मात्रा में उपस्थित है| भारत की स्वतंत्रता के समय से देखा गया है की श्वेतांबर समाज के संगठनों एवं धन-धान्य ज्ञान से परिपूर्ण अनुयायियों ने जिन संस्कृति का प्रचूर मात्रा में प्रचार प्रसार किया है| जिस समय जो परिस्थिति थी और माध्यम थे उन्हें निरंतर उपयोग में लाते हुए उन्होंने हर संभव प्रयास किया की जिन संस्कृति के गुणों को पूरे देश में प्रचार प्रसार किया जाए| इसके लिए उन्होंने फिल्म या सिनेमा का सही तरीके से उपोग किया| बीते दशकों में श्वेतांबर जैन समाज की ओर से काफी अधिक मात्रा में जैन फिल्मों का निर्माण एवं प्रसार हुआ है| जो केवल भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं है अपितु अमेरिका यूरोप जापान एवं अन्य देशों में भी जैन विडियो मूवी और सिनेमा का समझदारी से उपयोग किया जा रहा है| भारत में श्वेतांबर जैन समाज हर संभव प्रयास कर रह है नवीन से नवीन टेक्नोलॉजी के माध्यम से भारतीय एवं वैश्विक समाज को जैन संस्कृति एवं धर्म का ज्ञान सरलता से बतलाए|

इसके विपरीत दिगंबर जैन समाज में फिल्म मीडिया के प्रति जागृति बहुत अल्प है| यहां मुनि साधु साध्वियों के प्रवचन के वीडियो यूट्यूब और फेसबुक पर बहुतायत में उपलब्ध हैं| अब इंस्टाग्राम के दौर में उसपर भी उपलब्धता है| जिसे व्हाट्सएप्प के मध्यम से बड़ी संख्या में फॉरवर्ड करके सुना देखा जाता है| यहां तक सब सही| साथ में साधु संतों की जीवनी के ऊपर डॉक्यूमेंट्री यूट्यूब पर बहुतायत में उपलब्ध है| जैन जैनोत्तर दोनो ही समाज इसे देखना अत्यंत पसंद करते हैं| निर्माण क्वालिटी भी अच्छी होती है| लेकिन समाज में एक ऐसा वर्ग भी है जो इसके आगे की सोच रखता है और वह सिनेमा थिएटर OTT वीडियो फिल्म के मध्यम से जैन या भारतीय संस्कृति की गहराइयों को देखना समझना चाहता है| यह वर्ग काफी बढ़ा है| युवा है| जिसमे जैन अजैन सब सम्मिलित हैं| इनकी मानसिकता के विपरीत जैन समाज नहीं जा सकता है| लेकिन यहीं पर दिगंबर जैन समाज की काफी विफलताएं उभर के आती हैं| बीते दशकों में दिगंबर समाज के कुछ सदस्यों ने बड़े पर्दे के लिए फिल्म बनाने का प्रयास तो किया और उनमें से कुछ प्रयास सफल भी हुए लेकिन वह प्रयास एक या दो प्रयोगों तक ही सीमित थे| एक व्यक्ति तो उनमें से अजैन था जिन्होंने अंतरयात्री महापुरुष नामक फिल्म का सफल निर्माण एवं निर्देशन किया था जिसे देश भर में विभिन्न सिनेमा घरों में दिखाया गया था और जैन समाज के सदस्यों ने अत्यंत हर्ष से आचार्य श्री गुरु विद्यासागर जी महाराज की जीवनी से प्रेरित इस मूवी को देखा एवं सराहा| इसके विपरीत कुछ दिगंबर जैन फिल्मों जो पूर्व दशकों में निर्मित हुईं वह अधिक प्रभाव नहीं बना सकीं जैन समाज पर| दिगंबर हो या श्वेतांबर| अन्य की तो बात ही न पूछिए! क्यों? निर्देशक को धर्म-संस्कृति इतिहास पुरातत्व का सही ज्ञान लेखन की कला पट-कथा कहानी लिखने का कौशल संवाद लेखन पात्र चयन इत्यादि इत्यादि विषयों पर जब तक मजबूत पकड़ और अंत में कुशल अनुभवी निर्देशन नहीं हो तो सफल जैन फिल्म का निर्माण असंभव है| साथ में निर्देशक को फिल्म निर्माण की समस्त जानकारी तो हो परंतु जैन इतिहास का भी सम्पूर्ण ज्ञान होना अनिवार्य है| अगर निर्देशक को जैन दर्शन की गहराई का बोध नहीं है तो वह कभी भी बड़े पर्दे पर सही ज्ञान नहीं दिखला पाएगा और दर्शक एवं समाज को भ्रमित करेगा| यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है की जैन समाज में कलात्मक प्रवत्ति के अनुभवी व्यक्तियों की अत्यंत कमी है| कला जगत में जैन समाज केवल धन से ही सहयोग करता है अपने हुनर से नहीं| 

आज के समय श्री वी शांताराम जैसे व्यक्ति शायद ही हमें दिखें (जी, वह जैन थे)| इस कारण उच्च गुणवत्ता वाली जैन फिल्मों का निर्माण वर्तमान समय में संभव नहीं हो पा रहा है| जो निर्माण हुआ है उसे कुछ सीमित लोग ही देखते है जैन समाज में| यूट्यूब पर कुछ दिगंबर जैन फिल्म्स देखने को मिल जायेंगी लेकिन अधिकांश उसमे डॉक्यूमेंट्री होंगी और केवल कुछ ही फिल्म की श्रेणी में होंगी| इन फिल्मों की क्वालिटी भी काफी निम्न है| बीते दशक में एक धनवान दिगंबर जैन श्रावक ने प्रयास किया था मैना सुंदरी की प्रसिद्ध गाथा पर फीचर फिल्म बनाने का लेकिन वह शायद कभी बड़े पर्दे पर रिलीज़ ही नहीं हुई कुछ कारणों से जो मुझे ज्ञात नहीं हैं| प्रयास बहुत बढ़िया और सराहनीय था|अभी के समय केवल आउट्यूब पर ही उपलब्ध है| यहां भी उसे शायद ही कुछ लोग देखते हैं| दुख होता है ऐसी स्थिति को देख कर! इन श्रावक का काफी धन लगा था इस फिल्म के निर्माण में जिसके सफल होने पर अन्य जैनियों को भी प्रोत्साहन प्राप्त होता अधिक से अधिक जैन फिल्मों का निर्माण करने के लिए|

एक जैन श्रावक का उदाहरण देता हूं जिन्होंने स्वयं के जीवन का अमूल्य समय जिन संस्कृति को थिएटर फिल्म डॉक्यूमेंट्री-ड्रामा के द्वारा दिखान में समर्पित कर दिया| यह कानपुर निवासी हैं| बीते पच्चीस वर्षों में उन्होंने अनेक जैन विषयों पर नाट्य मंचन का सफल प्रसारण किया| साथ में जैन फिल्म और डॉक्यूमेंट्री ड्रामा का भी सफल आयोजन किया|यह उस समय की बात है जब जैन समाज विशेषकर दिगंबर जैन समाज में ऐसे कलात्मक प्रयोग लगभग न के बराबर हो रहे थे| जैन कला मात्र पंच कल्याणकों के आयोजनों तक सीमित थी| इसके आगे जैन संस्कृति और कला में कोई रचनात्मक उपयोग नहीं हुए| यह समय सन 1990-200 का है| जैन फिल्म उन्होंने 2005 के पश्चात बनानी प्रारंभ करी| चूंकि थिएटर का अनुभव और फिल्म मेकिंग का हुनर था साथ में जैन दर्शन के विषयों पर गहराई से पकड़ थी और अत्यंत धार्मिक जैन परिवार में जन्म हुआ था फलस्वरूप उनके पास बेजोड़ रूप में धर्म-कला का अनूठा समावेश था| कानपुर लखनऊ की जनता ने उनकी इस कला को बड़ा आदर सत्कार प्रदान किया| परंतु इन नगरों की सीमा के आगे जैन समाज ने उत्सुकता नहीं दिखलाई| कारण अनेकों थे| विभिन्न दिगंबर जैन पर्वों के उपलक्ष में उन्होंने जैन संस्कृति की गहराइयों को कलात्मक रूप से समाज के समक्ष प्रस्तुत किया| यहां उनके थिएटर का हुनर और जैन ज्ञान का अनूठा मिश्रण सदैव देखने को मिला| वर्तमान समय में अनुभवी जैन निर्देशक (थिएटर & फिल्म) जिन्हे जैन दर्शन का भी उचित ज्ञान हो| ऐसे अनुभवी व्यक्ति इस समय जैन समाज में शायद ही देखने को मिलते हैं| वह मात्र फिल्म या सीरियल जगत में निर्माता के रूप में दिखाई देंगे जहां धन की शक्ति सर्वोपरि कला है| जिन व्यक्ति का उदाहरण दिया है उन्होंने बीते दशक में तीन से चार जैन फिल्म डोक्यू- ड्रामा का सफल निर्माण निर्देशन किया है| परंतु इनके प्रसारण में उन्हें और उनकी संस्था को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ा| जैन समाज को यह कला धन देकर नहीं देखनी है बस मुफ्त में दिखवा लो! इसके कारण सीमित जैन युवा जैन कला के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं| जो जैन कला के क्षेत्र में उपस्थित हैं वह अधिकांश धनवान हैं| मीडिया फिल्म सीरियल OTT इंडस्ट्री में प्रभुत्व और पकड़ तो रखते हैं लेकिन केवल फाइनेंस और प्रोडक्शन तक ही सीमित हैं|

बंधुओं यह विषय एवं समस्या नई है| अधिकांश जैनियों को यह ज्ञात भी नहीं की यह समस्या है भी या नहीं| साथ में यह थोड़ी जटिल समस्या है जो सरलता से तुरंत समझ में नहीं आयेगी| भविष्य में इस विषय पर पुनः लेख लिखूंगा तब जाकर दिगंबर श्वेतांबर जैन समाज की विचारधारा की गांठ खुलेएगी|

समय के साथ चलना होगा जैन समाज को अन्यथा भविष्य में भारत की भारतीयता को संरक्षित नहीं रख पाएंगे| भारतीय स भारतके एक बड़े वर्ग को जैन संस्कृति के मूल्यों से अवगत कराना है तो फिल्म या सिनेमा का सहारा अवश्य लेना पड़ेगा| निसंदेह जैन मुनि एवं साध्वी संघों के प्रवचन तो अति आवश्यक हैं समाज एवं राष्ट्र के लिए| लेकिन यह कटु सत्य है की देश का बहुत बड़ा जैन वह अजैन वर्ग साधु संतों के प्रवचन सुनना पसंद नहीं करता है| विशेषकर अंग्रेजी शिक्षित धनी प्रवत्ति वाला शहरी युवा| उसे नए तरीके से जानकारी या ज्ञान को समझना है| उदाहरण: जैन समाज भगवान ऋषभदेव की महिमा को देश के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं तो फिल्म और सीरियल के मध्यम को अवश्य अपनाना पड़ेगा| उनके जीवन चरित्र के भौतिक संसार और त्याग दोनो की महिमा को बड़े पर्दे पर दिखाना होगा तब ही आम जन मानस जैन संस्कृति की प्राचीनता के महत्व को समझ पाएगा| भले ही यह modern तकनीक हो लेकिन इसके द्वारा दिखाई जाने वाला content हमारे नियंत्रण में होगा जिससे धर्म और संस्कृति से कोई खिलवाड़ नहीं होने देंगे| एक बड़ा कारण है जैन समाज का फिल्म और सीरियल का सहारा इसलिए नहीं लिया क्योंकि अधिकांश समय वह मात्र मनोरंजन के मध्यम है ज्ञान अर्जन का नहीं| दिगंबर जैन समाज पुरानी सोच रखता है और अपनी पुरानी संस्कृति को आसानी से छोड़ना नहीं चाहता है| जब स्वाध्याय की परंपरा शहरों में पूर्णतया समाप्ति की ओर है तो हमारे पास अन्य कौन सा उचित विकल्प है धर्म के प्रचार प्रसार के लिए?

युवा पीढ़ी की दिशा और दशा सुधारने के लिए जैन समाज को प्रचार प्रसार के लिए मूलभूत परिवर्तन करने पड़ेंगे स्वयं की विचारधारा में| ऐसा नहीं किया तो दिगंबर और श्वेतांबर दोनो ही पंथों के अनुयाई अन्य संस्कृति और पाश्चात्य सभ्यता की ओर आकर्षित होते जायेंगे या फिर सनातन वैदिक संस्कृति की छत्र छाया में श्रमण परंपरा को अधिकांश स्वरूप में भुला बैठेंगे|

भवदीय|

लेखक: आकाश जैन

वी. शांताराम का जन्म 18 नवंबर 1901 को तत्कालीन कोल्हापुर रियासत (वर्तमान महाराष्ट्र) के एक प्रतिष्ठित जैन परिवार में हुआ था। वह एक जैन थे और कोल्हापुर के प्रतिष्ठित जैन परिवार में जन्मे थे। अपने जीवनकाल के दौरान उन्हें जैन समाज रत्न पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, जो उत्कृष्ट जैन व्यक्तियों को दिया जाता है।

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