स्वतंत्रता संग्राम में जैन: सेनानी लाला हुकुमचंद जैन ( कानूनगो)

 

1857 का स्वातन्त्र्य समर भारतीय राजनैतिक इतिहास की अविस्मरणीय घटना है। यद्यपि इतिहास के कुछ ग्रन्थों में इसका वर्णन मात्र सिपाही विद्रोह या गदर के नाम से किया गया है, किन्तु यह अक्षरशः सत्य है कि भारतवर्ष की स्वतन्त्रता की नींव तभी पड़ चुकी थी । विदेशी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध ऐसा व्यापक एवं संगठित विद्रोह अभूतपूर्व था । इस समर में अंग्रेज छावनियों के भारतीय सैनिकों का ही नहीं, राजच्युत अथवा असन्तुष्ट अनेक राजा-महाराजाओं, बादशाह - नवाबों, जमींदारों- ताल्लुकदारों का ही नहीं, सर्व साधारण जनता का भी सक्रिय सहयोग रहा है। विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने व विदेशी शासकों को देश से खदेड़ने का यह जबरदस्त अभियान था । इस समर में छावनियां नष्ट की गईं, जेलखाने तोड़े गये, सैकड़ों छोटे-बड़े खूनी संघर्ष हुए, भयंकर रक्तपात हुआ, अनगिनत सैनिकों का संहार हुआ, अनेक माताओं की गोदें सूनी हो गईं, अबलाओं का सिन्दूर पुछ गया । यद्यपि अनेक कारणों से यह समर सफल नहीं हो सका, पर आजादी के लिए तड़प का बीज - बपन इस समर में हो गया था ।

इस स्वातन्त्र्य समर में हिन्दू, मुस्लिम, जैन, सिख आदि सभी जातियों व धर्मों के देशभक्तों ने अपना योगदान दिया। अंग्रेजी सरकार को जिस व्यक्ति के सन्दर्भ में थोड़ा सा भी यह ज्ञात हुआ कि इसका सम्बन्ध विद्रोह से है, उसे सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। अनेक देशभक्तों को सरेआम कोड़े लगाये गये, तो अनेक के परिवार नष्ट कर दिये गये, सम्पत्तियां लूट ली गईं, पर ये देशभक्त झुके नहीं । आज भारतवर्ष की स्वतन्त्रता का महल इन्हीं देशभक्तों एवं अमर शहीदों के बलिदान पर खड़ा है।

1857 के इस क्रान्ति-यज्ञ में अपने जीवन की आहुति देने वालों में दो अमर जैम शहीद भी थे। प्रथम लाला हुकुमचंद जैन और दूसरे थे श्री अमर चन्द बांठिया ।

लाला हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 में हांसी (हिसार) हरियाणा के प्रसिद्ध कानूनगो परिवार में श्री दुनीचंद जैन के घर हुआ। आपका गोत्र गोयल और जाति अग्रवाल जैन थी। आपकी आरम्भिक शिक्षा हांसी में हुई । जन्मजात प्रतिभा के धनी हुकुमचन्द जी की फारसी और गणित में विशेष रुचि थी, इन विषयों पर आपने कई पुस्तकें भी लिखीं। अपनी शिक्षा एवं प्रतिभा के बल पर आपने मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के दरबार में उच्च पद प्राप्त कर लिया और बादशाह के साथ आपके बहुत अच्छे सम्बन्ध हो गये।

1841 में मुगल बादशाह ने आपको हांसी और करनाल जिले के इलाकों का कानूनगो एवम् प्रबन्धकर्ता नियुक्त किया। आप सात वर्ष तक मुगल बादशाह के दरबार में रहे, फिर इलाके के प्रबन्ध के लिए हांसी लौट आये। इस बीच अंग्रेजों ने हरियाणा प्रान्त को अपने अधीन कर लिया । हुकुमचंद जी ब्रिटिश शासन में कानूनगो बने रहे, पर आपकी भावनायें सदैव अंग्रेजों के विरुद्ध रहीं।


श्री जैन उच्च कोटि के दानी, उदार हृदय और परोपकारी थे, आपने गांवों में मन्दिरों, शिवालयों, व तालाबों का निर्माण कराया तथा टूटे हुए मंदिरों का जीर्णोद्धार भी कराया। 

1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तब लाला हुकुमचंद की देशप्रेम की भावना अंगडाई लेने लगी। दिल्ली में आयोजित देशभक्त नेताओं के उस सम्मेलन में, जिसमें तात्या टोपे भी उपस्थित थे, हुकुमचंद जी उपस्थित थे। बहादुरशाह जफर से उनके गहरे सम्बन्ध पहले ही थे अत: आपने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने की पेशकश की। आपने उपस्थित नेताओं और बहादुरशाह जफर को विश्वास दिलाया कि 'वं इस स्वतंत्रता संग्राम में अपना तन मन और धन सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं।' हुकुमचंद जी की इस घोषणा के उत्तर में मुगल बादशाह ने लाला हुकुमचंद को विश्वास दिलाया कि वे अपनी सेना, गोला- - बारूद तथा हर तरह की युद्ध सामग्री सहायता स्वरूप पहुँचायेंगे । हुकुमचंद जी इस आश्वासन को लेकर हांसी आ गये।

हांसी पहुंचते ही आपने देशभक्त वीरों को एकत्रित किया और जब अंग्रेजों की सेना हांसी होकर दिल्ली पर धावा बोलने जा रही थी, तब उस पर हमला किया और उसे भारी हानि पहुंचाई। आपके और आपके साथियों के पास जो युद्ध सामग्री थी वह अत्यन्त थोड़ी थी, हथियार भी साधारण किस्म के थे, दुर्भाग्य से जिस बादशाही सहायता का भरोसा आप किये बैठे थे, वह भी नहीं पहुँची, फिर भी आपके नेतृत्व में जो वीरतापूर्ण संघर्ष हुआ वह एक मिशाल है। इस घटना से आप हतोत्साहित नहीं हुए, अपितु अंग्रेजों को परास्त करने के उपाय खोजने लगे।

लाला हुकुमचंद व उनके साथी मिर्जा मुनीर बेग ने गुप्त रूप से एक पत्र फारसी भाषा में मुगल सम्राट् को लिखा (कहा जाता है कि यह पत्र खून से लिखा गया था ) *, जिसमें उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में पूर्ण सहायता का विश्वास दिलाया, साथ ही अंग्रेजों के विरुद्ध अपने घृणा के भाव व्यक्त किये थे और अपने लिए युद्ध - सामग्री की मांग की थी। लाला हुकुमचंद मुगल सम्राट् के उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए हांसी का प्रबन्ध स्वयं सम्हालने लगे। किन्तु दिल्ली से पत्र का उत्तर ही नहीं आया। इसी बीच दिल्ली पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया और मुगल सम्राट् गिरफ्तार कर लिये गये ।

15 नवम्बर 1857 को बादशाह की व्यक्तिगत फाइलों की जांच के दौरान लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग के हस्ताक्षरों वाला वह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया। यह पत्र दिल्ली के कमिश्नर श्री सी0एस0 सॉडर्स ने हिसार के कमिश्नर श्री नव कार्टलैन्ड को भेज दिया और लिखा कि- 'इनके विरुद्ध शीघ्र ही कठोर कार्यवाही की जाये।'

* इस पत्र की प्राप्ति के लिए हमने राष्ट्रीय अभिलेखागार नई दिल्ली के अनेक चक्कर लगाये, रजिस्टर्ड पत्र भी डाले, अन्त में अभिलेखागार ने अपने पत्र दि० 6 नवम्बर 1995 संख्या मि० सं० 9/2/1/90 पी० ए० में लिखा कि ' इस विभाग में उक्त विषय सं सम्बन्धित विस्तृत खोज की गई, परन्तु वांछित पत्र उपलब्ध नहीं हो सका। आपको यह सुझाव दिया जाता है कि आप निदेशक अभिलेखागार, हरियाणा से सम्पर्क करें। शायद उनके पास वांछित सूचना प्राप्त हो सके।' निदेशक, अभिलेखागार, हरियाणा से सम्पर्क करने पर उन्होंने अपने पत्र 20 फरवरी 1996 संख्या 11/6-91 अभि० 453 में लिखा कि 'कार्यालय में आकर यहाँ उपलब्ध अभिलेखों में वांछित पत्र की खोज कर लें।'

पत्र प्राप्त होते ही कलेक्टर एक सैनिक दस्ते को लेकर हांसी पहुंचे और हुकुमचंद तथा मिर्जा मुनीर बेग के मकानों पर छापे मारे गये। दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया, साथ में हुकुमचंद जी के 13 वर्षीय भतीजे फकीर चंद को भी गिरफ्तार कर लिया गया। हिसार लाकर इन पर मुकदमा चला, एक सरसरी और दिखावटी कार्यवाही के पश्चात् 18 जनवरी 1858 को हिसार के मजिस्ट्रेट जॉन एकिंसन ने लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को फांसी की सजा सुना दी। फकीर चंद को मुक्त कर दिया गया।

19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद और मिर्जा मुनीर बेग को लाला हुकुमचंद के मकान के सामने ( जहाँ नगर पालिका हांसी ने 22-1-1961 को इस शहीद की पावन स्मृति में 'अमर शहीद हुकुमचंद पार्क' की स्थापना की है।) फांसी दे दी गई। क्रूरता की पराकाष्ठा तो तब हुई जब लाला जी के भतीजे फकीर चंद को, जिसे अदालत ने बरी कर दिया था, जबरदस्ती पकड़कर फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया।

भारतवर्ष के इतिहास का वह क्रूरतम अध्याय था । अंग्रेजों की क्रोधाग्नि इतने से भी शान्त नहीं हुई। इनके रिश्तेदारों को इनके शव अन्तिम संस्कार हेतु नहीं दिये गये, अपितु उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए लाला हुकुमचंद के शव को जैनधर्म के विरुद्ध भंगियों द्वारा दफनाया गया और मिर्जा मुनीर बेग के शव को मुस्लिम परम्पराओं के विरुद्ध जला दिया गया।

शहीद होने के समय हुकुमचंद जी अपने दो पुत्रों को छोड़ गये थे जिनमें न्यामत सिंह की आयु आठ वर्ष और सुगनचंद की आयु मात्र उन्नीस दिन थी। आपकी धर्मपत्नी दोनों बच्चों को लेकर आश्रय के लिए गुप्त रूप से किसी सम्बन्धी के यहाँ चलीं गईं। प्रशासन उन्हें खोजता रहा पर सफल नहीं हुआ।

लाला जी के बाद उनकी सम्पत्ति कौड़ियों के भाव नीलाम कर दी गई। उनकी सम्पन्नता का परिचय इसी से मिल जाता है कि लगभग 9000 एकड़ जमीन उनके पास थी । अन्य वस्तुओं में लगभग 400 तोले सोना 3300 तोला चांदी, 1300 चांदी के सिक्के, 107 मोहरें आदि।

हरियाणा के प्रसिद्ध कवि श्री उदय भानु 'हंस' ने ठीक ही लिखा है-

'हांसी की सड़क विशाल थी, हो गई लहू से लाल थी। 

यह नर-पिशाच का काम था, बर्बरता का परिणाम था। 

श्री हुकुमचन्द रणवीर था, संग मिर्जा मुनीर बेग था । 

दोनों स्वदेश के भक्त थे, जनसेवा में अनुरक्त थे । 

कोल्हू में पिसवाये गये, टिकटी पर लटकाये गये । 

हिन्दू को दफनाया गया, मुस्लिम शव झुलसाया गया। 

कितने जन पकड़े घेरकर, फिर बड़ पीपल के पेड़ पर ।

कीलों से टँक गरीब थे, ईसा के नये सलीब थे।'

लाला हुकुमचन्द जैन जैसे अमर शहीदों पर केवल जैन समाज को ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय समाज को गर्व है। लाला हुकुमचंद की स्मृति में हांसी नगरपालिका ने 1961 में अमर शहीद हुकुमचन्द पार्क बनवाया, जिसमें लाला जी की आदमकद प्रतिमा लगी है।

आ)- (1) Who's who of Indian Martyrs. Volume III, Page 56,57 ( 2 ) सन् सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, भाग 3, पृष्ठ 68 70 (3) डॉ० रनलाल जैन, हाँसी का आलेख (4) शोधादर्श, फरवरी 1986 (5) The Martyrs Page 10-13 (6) जैन दर्पण, दिसम्बर 1995 (7) अमृतपुत्र, पृष्ठ 27 एवं 73


स्त्रोत्र: पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम में जैन"।  



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