श्री सम्मेद शिखर जी जैन तीर्थ क्षेत्र पर आखिर क्यों दिगंबर और श्वेतांबर मूर्ति पूजक जैन समाज आमने सामने हैं न्यायालय में?
निर्मलकुमार पाटोदी, इंदौर
गुरुवार 19 सितम्बर 2024
सर्वोच्च न्यायालय में श्वेताम्बर मूर्ति पूजक जैन समाज की संस्था ”आनंदजी कल्याण जी ट्रस्ट”, जो स्थापित है अहमदाबाद (गुजरात) में।
रजिस्टर्ड, मुंबई महाराष्ट्र में और झारखण्ड राज्य में स्थित अपने से बड़े धर्म समाज के सबसे बड़े दिगंबर जैन समाज के सबसे बड़े धर्म तीर्थ सिद्धक्षेत्र पर अधिकार और प्रबंध के लिए प्रयासरत् है।
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सर्व विदित है कि श्वेतांबर मूर्ति पूजक जैन समाज और समूचे श्वेतांबर समाज का सबसे बड़ा धर्म तीर्थक्षेत्र पालीताना गुजराज में स्थित है। फिर भी:
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दिगम्बर जैन समाज के सबसे प्रमुख सिद्धक्षेत्र तीर्थराज सम्मेदशिखर जी (पारसनाथ पर्वत) पर स्थित बीस तीर्थंकर भगवंतों और पूज्य गौतम गणधर की निर्वाण स्थली पर अपना अधिकार चाहता है। उनका प्रबंधन चाहता है। उल्लेखनीय है कि प्रवीकाउंसिल (Privy Council), लंदन का निर्णय है कि सम्मेदशिखर (पारसनाथ पर्वत) पर स्थित इक्कीस टोंकें दिगम्बर जैन धर्म के तीर्थंकरों की है। न्यायालय ने स्वीकार किया है कि दिगंबर धर्म के तीर्थंकर भगवान के चरण-चिह्न से पहचान है। श्वेतांबर धर्म के आम्नाय अनुसार उनके भगवंतों के चरण होते हैं, जिनकी पहचान पैर के ऊपर के भाग में अंकित नाखून से है। फिर भी श्वेतांबर मूर्ति पूजक समाज दिगंबर जैन समाज के समूचे सम्मेदशिखर (पारनाथ पर्वत) को अपना बताकर न्यायालय से अधिकार प्राप्त करने के लिए अपने धन बल, सामाजिक एवं राजनेतिक शक्ति को पूर्ण रूप से झोंक दिया। जो जैन धर्म और जैन धार्मिकता की भावना के सरासर प्रतिकूल है।
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श्वेतांबर मूर्ति पूजक जैन समाज की संस्था “आनंदजी कल्याणजी” ट्रस्ट, द्वारा न्यायालय में विवाद:
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1967 से चल रहे सम्मेदशिखर मुकदमों की अपीलों का फैसला दिगम्बर जैन समाज के पक्ष में हुआ था
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जैनों के महानतम तीर्थ श्री सम्मेदशिखर (पारसनाथ पर्वत) के सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के बीच सन् 1967 से चल रहे मुकदमों की अपीलों का फैसला झारखण्ड राज्य उच्च न्यायालय की फुल बेंच ने 24 अगस्त 2004 को सुनाया था। इन मुकदमों में श्वेताम्बरों ने दावा किया था कि वे 25 वर्ग मील क्षेत्र में फैले हुए पारसनाथ पर्वत और उसके शिखरों पर अनादिकाल से स्थित 20 तिर्थंकरों और श्री गौतम स्वामी के पवित्र चरणचिह्नों से युक्त टोंकों और मंदिरों के स्वामी हैं क्यों कि पर्वतराज को श्वेताम्बरों ने सन् 1918 में भूतपूर्व जमींदार राजा पालगंज से खरीदा था। श्वेताम्बरों ने साथ ही साथ दावा भी किया था कि दिगम्बरों को पवित्र चरण चिह्नों के केवल दर्शन व पूजा का अधिकार हे और कोई अधिकार नहीं है। दिगम्बर समाज की ओर से अपने दावे में कहा गया था कि चरण चिह्न दिगम्बर स्वरूप के हैं और दिगम्बरों के पूजा के मौलिक अधिकारों को सार्थक बनाने की दृष्टि से आवश्यक है कि दिगम्बर समाज को पर्वतराज पर टोंकों के निकट धर्मशाला बनाने का अधिकार प्रदान किया जावे। स्मरण रहे कि सन् 1965 में श्वेताम्बरों ने बिहार सरकार के साथ एक इकरार करके अपने स्वामित्व के अधिकार को पून: प्राप्त कर लिया था जो अधिकार जमींदारी उन्मुलन कानून के अंतर्गत समाप्त हो गया था। सन् 1966 में दिगम्बरों ने भी बिहार सरकार के साथ एक करार करके इस अधिकार की घोषणा करा ली थी कि वे पर्वत पर धर्मशाला बना सकते थे। इस करार के आधार पर दिगम्बरों ने टोंकों के निकट यात्रियों के ठहरने के लिए शेड बनाया था जिसे श्वेताम्बरों ने तोड़ दिया और इस घटना के परिणाम स्वरूप दोनों सम्प्रदायों ने सन् 1967 और 1968 में अपने-अपने अधिकारों की घोषणा के लिए मुकदमें दायर किये थे। जिसकी अपीलों की सुनवाई गत मास झारखण्ड उच्च न्यायालय की फुल बैंच द्वारा की गई थी जिसमें माननीय मुख्य न्यायाधीश श्री बालसुब्रमणियम के अतिरिक्त न्यायाधीश श्री तपन सेन तथा श्री हरिश्चन्द्र प्रसाद थे|
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.श्वेतांबर मूर्ति पूजक जैन समाज की संस्था“आनंदजी कल्याणजी” ट्रस्ट, की ओर से विवाद न्यायालय में
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श्वेतांबर मूर्ति पूजक जैन समाज की संस्था “आनंदजी कल्याणजी” अहमदाबाद की ओर से सन् 1997 में न्यायालय में प्रस्तुत प्रथम अपील में न्यायाधीश श्री पी. के. देव द्वारा दिए गये फैसले की पुष्टि करते हुए निर्णय दिया गया कि दिगंबरों को न केवल पूजा-अर्चना का अधिकार है बल्कि अपने सम्प्रदाय के तीर्थ यात्रियों के लिए टोंकों के निकट धर्मशाला बनाने का पूर्ण अधिकार है। न्यायालय ने इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए कि दोनों सम्प्रदायों के बीच लम्बे समय से चल रहे विवादों का पूर्ण समाधान करने के लिए तथा इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि जैन समाज में दिगम्बरों की संख्या 70 प्रतिशत है अत: एक कल्याणकारी राज्य में यह अनुचित होगा कि श्री सम्मेदशिखर तीर्थ का स्वामित्व व प्रबंध एक अल्पसंख्यक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के हाथ में छोड़ दिया जाए, तीर्थ की सुरक्षा और तीर्थयात्रियों के लिए मौलिक सुविधाओं की व्यवस्था के उद्देश्य से न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश और सुझाव दिया था कि जैन समाज के सभी सम्प्रदायों और उप सम्प्रदायों प्रतिनिधियों की एक कमेटी बनाई जाए जो उक्त उद्देश्यों की पूर्ति करें। न्यायालय ने यह निर्देश और सुझाव भी दिया कि राज्य सरकार उक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक प्रशासक भी नियुक्त कर सकती है जो जैनों के उपरोक्त संयुक्त समिति की सहायता व परामर्श से कार्य करेगा। पर्वत पर स्थित टोंकों और मंदिरों के अतिरिक्त उनके निकटवर्ती 46 एकड़ से अधिक की भूमि के प्रबंध का कार्य भी न्यायालय ने उपरोक्त समिति को सौंपने का निर्देश दिया और निर्णय दिया कि टोंकों की पार्श्ववर्ती भूमि का उपयोग समस्त जैन समाज के उपासकों द्वारा पूजा की सुविधा के लिए किया जाएगा न कि केवल एक सम्प्रदाय के लिए। इस निर्णय से दिगम्बरों की बहुत बड़ी विजय हुई और उनके समस्त अधिकारों को न्यायालय ने स्वीकार किया और इस दावे को खारिज कर दिया है कि तीर्थों के स्वामी और प्रबंधक श्वेताम्बर हैं।
इन अपीलों में श्वेताम्बर समाज की ओर से सर्वश्री सिद्धार्थ शंकर राय, भूतपूर्व न्यायाधीश श्री बछावत, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री गोपाल सुब्रमणियम के अतिरिक्त लगभग आधा दर्जन अन्य वकीलों ने बहस की थी और दिगम्बर समाज की ओर से सर्व श्री आर. के. जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, श्री राम बालक महतो भूतपूर्व एडवोकेट जनरल बिहार, डॉ़ डी. के. जैन, भूतपूर्व न्यायाधीश तथा चार अन्य वकील उपस्थित हुए थे। इन मुकदमों और अपीलों में दिगम्बर समाज की ओर से समस्त कार्रवाही अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, मुम्बई द्वारा की गई थी जिसके अध्यक्ष साहू रमेश चन्द्र जैन थे और इसमें भी बसंत भाई दोशी तथा डॉ. डी. के. जैन ने सक्रिय भाग लिया था।
भवदीय|
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