श्री सम्मेद शिखर जी जैन तीर्थ क्षेत्र पर किसका है अधिकार: सही तथ्य सही सच्चाई
अर्हत वचन, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
ISSN 0971-9024 वर्ष-26, अंक-3, जुलाई-सितम्बर-2014, 31-39
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सम्मेदशिखर जी पर्वत पर श्वेताम्बर मूर्ति पूजक समाज की ओर से लगातार हर प्रकार की बाधाएं उपस्थित की गयी है, जो आज तक जारी है। सर्वोच्च न्यायालय में इस मूर्तिपूजक श्वेताम्बर जैन समाज की ओर से प्रस्तुत की गयी याचिका पर अंतिम सुनवाई जारी है…
———————————————————————————————————शिखरजी की रक्षा से जुड़े तथ्य
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सदभावना पारमार्थिक न्यास, इंदौर की ओर से अध्यक्ष निर्मलकुमार पाटोदी की प्रस्तुति
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सारांश:-
सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखर जी पहाड़ पर अधिकार और प्रबंधन को लेकर जो विवाद है, उस पर वर्तमान में प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। श्री माणिकचंद्र जव्हेरी-भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के संस्थापक रहे हैं। आपने इस संस्था के महामंत्री के पद का दायित्व निभाया है। जीवन के अंतिम समय तक दिन-रात एक करके धर्म और समाज के हित मे शिखर जी पहाड़ की रक्षा के लिए अथक तथा अतुलनीय परिश्रम करके स्तुत्य पुरुषार्थ किया था। आपने अन्य तीर्थों के लिए भी योगदान किया है। समाज की हर क्षेत्र से जुड़ी मस्याओं को सुलझाने में अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्वाह किया है।
शिखर जी पहाड़ सदा से दिगम्बर समाज का था, रहा है और इसका प्रमाण निम्न पुस्तक है:-ब्र. शीतलप्रसाद जैन, दानवीर माणिकचंद्र, मुम्बई, सं़ 1991, जैन समाज में वर्तमान में व्याप्त उलझनों को सुलझाने के लिए दानवीर माणिकचन्द झवेरी के जीवन से आज भी प्रेरणा ली जा सकती है।
ऐतिहासिक घटनाक्रम यहां प्रस्तुत है। सम्मेदाचल पर्वत (हजारीबाग-बिहार) महा पवित्र तीर्थ पर वंदना के लिए वि. संवत 1953 (1896 ई.) के शीतकाल में सेठ माणिकचंद जवेरी, बम्बई के छोटे भाई सेठ नवलचंद कुटुम्ब सहित अपने भांजे चुन्नीलाल झवेरचंद को साथ लेकर पधारे। आप स्नान कर धुली सफेद धोती और चादर ओढ कर अष्ट
द्रव्य, कलश झारी, रकाबी और पानी छानने का छन्ना लेकर साथियों के साथ पहले सीतानाले पहुंचे। यहां सामग्री धोई और कलश में प्रक्षाल के लिए जल भरा। सीतानाले से श्री कुन्थुनाथ स्वामी की टोंक तक आते हुए पहाड़ का चढ़ाव आपको कुछ विकट मालूम हुआ। आपने देखा जो वृद्ध स्त्री पुरुष व बालक हैं, उनको भी इस चढ़ाई को चढ़ने में बहुत कष्ट हो रहा है। परन्तु भक्तिवश सब चढ़ रहे हैं। नवलचंद जी के मन में विचार आया कि यहां सीढ़ियां बन जानें तो सबको बहुत सुविधा होगी। आपने सभी कूटों पर चरण पादुकाओँ की प्रक्षाल की, अष्ट द्रव्य चढ़ाया, प्रदक्षिणा दी और और बड़े भाव पूर्वक भक्ति की। बीच में जल मंदिर में तीन प्रतिबिम्ब थे। इनमें बीच की वेदी में श्वेताम्बरी तथा दो आसपास की वेदियों में विराजित दिगम्बरी प्रतिमाएं थी। दिगम्बरी प्रतिमाओं की बड़े भक्तिभाव से प्रक्षाल- पूजन किया। शाम पड़ते-पड़ते यात्रा करके नीचे आ गये। रात्रि को चुन्नीलाल जी ने यात्रियों की एक सभा बुलाई। 4000 सीढ़ियां पहाड़ पर बनवाने का निश्चय किया गया और यात्रियों से चंदा किया गया। सबसे पहले 1001 रु. अपनी तरफ से दिये। कुल राशि 6014 रुपये एकत्र किये गये। सीढ़ियां बनवाने का काम उपरैली की कोठी के मुनीम बाबू हरलाल जी के सुपुर्द किया गया। उन्होंने सीढ़ियां बनवाना प्रंभ कर दिया, किंतु उनका स्वर्गवास हो जाने से बाबू राघवजी को यह काम सौंपा गया।
सेठ नवलचंद जी के प्रयास से संवत् 1953 सन् 1898 में सीतानाले से कुन्थुनाथ स्वामी की टोंक तक सीढ़ियां बनवाने के काम में 700सीढ़ियां बन गयी थी। श्वेताम्बरी लोगों को यह काम पसंद न आया। वास्तव में सीढ़ियां सभी यात्रियों की सुविधा के लिये बनवाई गयी थी। इस सद्भावना का कुछ भी विचार न करके श्वेताम्बरीनभाईयों ने 12 जनवरी 1899 को रात्रि के समय चोरी से 205 सीढ़ियां तुड़वा डाली। दूसरे दिन पुलिस में रिपोर्ट की गयी। फौजदारी मुकदमा नम्बर 1/1900 गिरडीह कोर्ट में चलाया गया। हजारीबाग के अपर न्यायाधीश ने 9/9/1901 के आदेश में निर्णय दिया कि श्वेताम्बरों द्वारा साढ़ियां तोड़ना अपकृत्य है।
दिगम्बरों को सीढ़ियां बनाने का अधिकार है। श्वेताम्बर कोठी के दो भाइयों को 8 दिन की सजा व मचलके हुए। मुकदमा नये मुनीम बीसपंथी कोठी के राघव जी ने चलाया था। इस कार्यवाही की जानकारी 4000 पर्चे छपाकर हाथरस में दी गयी। महासभा ने मुकदमे की पैरवी के लिए एक कमेटी बनायी थी। उधर श्वेताम्बरियों ने कलकत्ता हाईकोर्ट में अपील की। खेदजनक कारण यह बना कि दिगम्बरियों के प्रमाद से ठीक से पैरवी न होने के कारण श्वेताम्बर भाई बरी हो गये। महासभा ने वकीलों की राय लेकर दीवनी मुकदमा चलाने का प्रस्ताव स्वीकार किया।
सभा के कार्यों का विस्तार हो इस दृष्टि से पंडित गोपालदास जी के प्रस्ताव पर ‘जैनमित्र’ निकालने का निश्चय किया गया। सम्पादक पं़ गोपालदास जी बरैया और प्रोप्रायटर सेठ माणिकचंद जी नियत हुए। जब से शिखर जी का काम महासभा ने बम्बई सभा के आधीन किया था, तब से ही सेठ माणिकचंद जी तीर्थरक्षा में पूरी तरह से सक्रिय हो गये थे। रात-दिन शिखरजी की सुव्यवस्था में लगे रहते थे। आपका ही प्रयास था, जिसके फलस्वरूप पहाड़ पर बनाई गई सीढ़ियाों को तोड़ने के हर्जाने में श्वेताम्बरियों पर 5000 रु. की दीवानी नालिश की गई थी और रुपये 1875 की डिक्री श्वेताम्बरियों पर विद्वान जज साहब ने दी थी। “The Swetambari sect can not deprive the Digambari sect of their right of way over the path. The Defts individually and as agent of and servents of the Swetambary sect had, in my opinion no right to demolish the stairs and remove the same…They are here to wanted not to commit further mischief and resist the construction of the stairs. They shall pay Rs. 1845/- as damages to the plaintiff (Digambers)
संवत 1958 में माणिकचंद जी के बड़े भाई सेठ पानाचंद जी परिवार के साथ शिखरजी की यात्रा पर गये थे। भगवान पार्श्वनाथ जी की टोंक पर मालूम किया कि कलकत्ते वाले श्वेताम्बर राय बद्रीदास जी इस टोंक पर माह सुदी 13. को चरणों के स्थान पर प्रतिमाजी निराजमान करना चाहते हैं तथा आमंत्रण पत्रिकाएं भी निकाली हैं। पानाचंद जी ने वहीं से इस जानकारी की चिट्ठी माणिकचंद जी को लिखी। बम्बई में खबर होते ही श्रीमान् लार्ड कर्जन को तार दिया गया कि पार्श्वनाथ जी की टोंक पर जैसे सदा से चरण पादुकाएं स्थापित हैं, वैसी ही रहें—प्रतिमा विराजमान न की जावें। बाद में सेठ माणिकचंद जी समाज के साथियों के साथ शिखर जी पहुंचे। अन्य स्थानों से भी प्रमुख लोगों को बुला लिया। था।
इस कार्य हेतु 1000 रु. एकत्रित हो गये थे। इसी बीच लार्ड कर्जन ने रांची के डिप्टी कमीश्नर को जरूरी प्रबंध का हुक्म गे दिया। टोंक से चरण उखाड़ने की मनाही का हुक्म आ गया। सरकार के इस न्याय से सेठ जी व सर्व दिगम्बर जैन समाज को संतोष हुआ। बम्बई आने पर माणिकचंद जी को खबर मिली की प्रतिष्ठा के दिन 200 कांस्टेबल, दरोगा व सुपरिटेन्डेन्ट को टोंक पर भेजा गया है, जिससे मूर्ति की प्रतिष्ठा न हो सकी। सदा की भांति चरण विराजित रहे। सेठ जी की विशेषता थी कि, वे किसी भी काम के लिये आगे होकर धनराशि की घोषणा कर देते थे। शिखरजी की उलझन को सुलझाने के लिये सरकार से पहाड़ खरीदने का विचार बना। खुर्जा में तीर्थक्षेत्र कमेटी का अधिवेशन 28 जून को बुलाया गया था, जिसमें सेठ जी ने अपनी ओर से दस हजार रु. देने की घोषणा की। …सहयोग राशि दिल्ली, खुरजा, सहरानपुर, रावलपिंडी, अजमेर, इंदौर, शोलापुर, जयपुर, बिजनौर, नजीबाबाद, गया, सिकन्दराबाद, देहरादून, ललितपुर, अलपर, रायचूर, लश्कर, बड़नगर, महू, निमाड़, बनारस, सादरा (गुजरात), उदयपुर, ईडर और अम्बाला से मिली।…117 साल पहले दो लाख रु. सम्मेद शिखरजी तीर्थ को बचाने के लिए एकत्रित हो गये।सेठ जी के वचनों का कोई भी उल्लंघन नहीं करता था। उनकी न्यायप्रियता, विचारवान, गंभीरता, सहनशीलता, पुरुषार्थ तथा धर्म एवं जाति की सेवा में दिन-रात लगे रहने की विशेषता का प्रतिफल था। तीर्थक्षेत्र कमेटी की ओर से 18 जून को बड़े लॉट साहब को भेजे गये तार का जवाब डिप्टी सेक्रेट्री गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया के पत्र क्रमांक 1749 दिनांक 16/07/1907 का सेठ जी को प्राप्त हुआ, जिसमें
लॉट साहब स्वयं मौके पर जायेंगे। जैनियों को अपना पक्ष रखने का मौका मिलेगा तथा जब तक छोटे लॉट साहब जांच न कर लेंगे, बंगलों के पट्टे न दिये जायेंगे। पत्र के कुछ आशय: (I am to add that no action whatever will be taken towards granting leases on the hill until the enquiry has been held by his Honour the Lieuteuant Governor:) सेठ माणिकचंद जी ने बात को बढ़ते हुए देखकर बम्बई में सलाह की, तदनुसार यदि पालगंज के राजा अनुमति देने से इंकार कर दें और श्वेताम्बरी लोग साथ दें, तो शायद यह उपसर्ग दूर हो सकता है। इसलिषे आपने मिती आषाढ़ सुदी
4 तारीख 14 जुलाई के दिन बम्बई से अपने भानजे सेठ चुन्नीलाल भवेरचंद को लाला प्रभुदयाल जी, सेठ पदमचंद जी, मि. चुन्नीलाल बी.ए़ सुपरिन्टेन्डेन्ट जैन बोर्डिंग बम्बई, आदि भाईयों के साथ गिरिडीह भेजा। आरा से बाबू देवकुमार जी व बाबू किरोड़ीचंद भी आए। बहुत कुछ चेष्टा भी की किंतु श्वेताम्बर समाज कलकता के राय बद्रीदास जी के असहमत रहने से मेल नहुआ। तथा पालगंज के राजा से भी सफलता न मिली।
एक अगस्त 1907 को शिखरजी पहाड़ पर कमिश्नर साहब आये। बाबू धन्नूलाल अटार्नी, सेठ परमेष्टीदास व बम्बई के लोगों ने कहा कि हम शिखरजी पहाड़ की पवित्रता को आंच आना सहन नहीं कर सकते।…सेठ माणिकचंद जी को डिप्टी कमिश्नर हजारीबाग से सूचना मिली कि लॉट साहब 28,29,30 अगस्त 1907 को शिखरजी पहाड़ पर आवेंगे 26 अगस्त को बीसपंथी कोठी में लाला सुल्तान सिंह दिल्ली के सभापतित्व में सभा हुई, जिसमें स्मरण पत्र सुनाकर मंजूर कराया। उस पर हस्ताक्षर कराए गए। 65 सदस्यों की सूचि बनायी गई। 27 अगस्त 1907 को लॉट साहब लॉर्ड फ्रेजर पर्वत पर निरीक्षण करने गये। 28 अगस्त को लॉट सा. ने 15 दिगम्बरियों के साथ पार्श्वनाथ स्वामी की टोंक से कुंथुनाथ स्वामी की टोंक तक और बाद में सीतानाले तक आये। श्वेताम्बरियों को भी बुलाया था पर उनमें से कोई न पहुंचा।
प्रतिनिधियों से लॉट साहब ने रास्ते में ही चर्चा की, लोगों ने पर्वत की पवित्रता के बारे में समझाया। दोपहर 2 बजे लॉट साहब बंगले पर आ गये। यहां राय बद्रीदास आदि सात-आठ श्वेताम्बरी तथा कुछ दिगम्बरी मिले। शिखरजी में लगभग 100 श्वेताम्बरी और 2500 करीब दिगम्बरी आ गये थे। 29 अगस्त को लॉट साहब पहाड़ से नीचे उतरे। दिगम्बर मंदिर में कपड़े के जूते पहनकर गये। पाण्डाल में लाला सुल्तान सिंह रईस, देहली ने ज्ञापन पढ़ा और सुन्दर कास्केट में रखकर भेंट किया, जिसे धन्नुलाल अटार्नी ने बनाया था। उत्तर में लॉट साहब ने भाषण दिया, जिससे उपस्थितों को संतोष नहीं हुआ तथापि आखिरी हुकम बंद रखा। लॉट साहब ने आगे की चर्चा हेतु दो नाम मांगे थे, जो ये दोनों नाम सेठ माणिकचंद जी ने दिये थे। कलकत्ते में पर्वत रक्षा के लिये दफ्तर खोलना तय हुआ, उसमें बम्बई प्रांतिक सभा के क्लर्क मौजीलाल को रखा। 28से 31 मार्च 1908 तक बाबू देवकुमार जी जमींदार, आरा के सभापतित्व में महासभा का बारहवां अधिवेशन हुआ। अधिवेशन में सभापति के नाम ए.एच.बी. अंडर सेक्रेट्री गवर्नमेंट बंगाल का पत्र दिनांक 24/03/1908 का आया था। इसमें कहा गया बीच की टेकरी का रास्ता छोड़ दिया जाय तथा इसे भी जैनी लोग अच्छे दाम देकर सदा के लिए खरीद लें या पट्टे पर ले लें। पश्चिमी पहाड़ योरोपियन व पूर्वी देशियों के बंगलों के लिए दिया जाए तथा नीमियाघाट से नई बस्ती तक नई सड़क बनें। अंत में लिखा था यह भारत सरकार का हुक्म है, इसे सभी जैनियों में प्रचारित किया जाएऔर जो कुछ कहना हो वह कोर्ट ऑफ वार्ड्स से शीघ्र कहा जाए। तब महासभा ने प्रस्ताव नम्बर 14 इस आशय का पास किया कि इस हुक्म से सभी जैनियों के ह्रदय पर चोंट लगी है।
यह पर्वत अनादिकाल से पूज्य और पवित्र है। इस पर ऐसा कृत्य किसी मुसलमान राजा ने भी नहीं किया। प्रस्ताव की नकल इण्डिया गवर्नमेंट व स्टेट सेकेट्री लंदन को भेजी गयी तथा समाज से अपील की गयी की वह जन-धन और सहानुभूति से पूर्ण सहयोग करें। इस मेले में 12000 जैनियों के भारी क्षोभ और उनके क्लेश चित्त से निकले हुए वचनों को सुनकर और भी सेठजी को चिंत्ता होती थी कि क्या होने वाला है ? लोगों का कहना था कि बंगले बनने लगे तो हम डट जायेंगे, मार खायेंगे, मरेंगे। परंतु पूज्य ध्यान की भूमि को गृहस्थ जीवन, पशु हिंसा, मदिरापान व भोग विलास का स्थान कभी न बनने देंगे। रंगपुर के जैन भाइयों ने इस उपसर्ग को सुनकर विलायती नमक बेचना बंद कर दिया, जो वर्ष में रु. 2000 का खपता था। माणिकचंद जी ने बम्बई आकर 9 अप्रैल 1908 को उन्होंने हीराबाग में समाज की सभा बुलाई। लाला मिश्रीलाल जी सभापति बनाए गए। अब केवल दो ही उपाय है—एक मुकदमा चलाना, दूसरा अपने प्राणों का विसर्जन करके पर्वत की रक्षा करना। दोनों की नकल भारत सरकार को भेज दी गयी। सेठ माणिकचंद जी ने इस सरकारी धर्म घातक आज्ञा की जानकारी समाज की सभी पंचायतों को भेज दी।
30 अप्रैल 1908 को बम्बई कान्फ्रेंस का सम्मेलन धूलिया में रायबहादुर जोशी के सभापतित्व में हुआ। उसमें येवला के दामोदर बापू ने प्रस्ताव का समर्थन सेठ बालचंद हीराचंद, मुंशी गुलाम मोहम्मद तथा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने किया। जैनियों के चारों ओर विरोध को देखते हुए बंगाल के छोटे लॉट ने 16 मई 1908 को कलकत्ते में बाबू धन्नूलाल, परमेष्टीदास, महाराज बहादुर सिंह, राय मनीलाल व नाहर बहादुर से बात की। उसी दिन एक पत्र वी. एकालिंस प्राईवेट सेक्रेट्री ने राय मनीलाल के नाम से भेजा जिसकी कॉपी सेठ माणिकचंद जी को भी मिली, इसमें आश्वासन दिया गया कि समाज ने सम्पूर्ण पर्वत को खरीदने व हमेशा के लिए पट्टे पर लेने का जो कहा है, उस संबंध में कमिश्नर से रिपोर्ट की जायेगी। जब तक जमींदार पालगंज व कार्ट ऑफ वाड्स से जांच न हो मामला यथावत् रहेगा। पत्र से इतना स्पष्ट हो गया कि सम्पूर्ण पर्वत को पट्टे पर लेने का प्रयत्न होना चाहिये। सेठ जी ने कलकत्ते वालों को लिखा कि खुलासा आज्ञा निकालना चाहिए कि बंगले न बनें। बम्बई के गवर्नर ने प्रमुख जैनियों से नाराजगी का कारण पूछा तो बताया गया कि लोग बंगले बनाने की आज्ञा से घबड़ा गए हैं। बम्बई गवर्नर ने बंगाल गवर्नर से मालूम करके एक पत्र जून 1908 में वीरचंद सी. आई. ई. को लिखा, जो अखबारों में भी छपा। इसमें लिखा था कि जैनियों ने पालगंज राजा से पहाड़ खरीदने का कोई प्रबंध नहीं किया है, कि जिससे आप पहाड़ खरीद लेवें या जिससे राजा पर्वत पर बंगले बनाने का विचार छोड़ देवें। पहाड़ जब तक कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन है, इस मामले को रोक देना ठीक समझा जाता है। (The question should be dropped at any rate so long as the property under the court of wards at present) सरकार जैनियों को हानि पहुंचाना नहीं चाहती है। मामला जमींदार और जैनियों के बीच का है। आशा है आपस में योग्य फैसला जल्द ही हो जायगा। जैनी सरकार के प्रति सदा वफादार होंगे, जिस सरकार में उन्होंने उन्नति प्राप्त की है।
11 जुलाई 1908 को छोटे लॉट ने कलकत्ते में दिगम्बर-श्वेताम्बर से फिर मुलाकात की। धन्नूलाल व परमेष्टीदास, शीतलप्रसादजी व देवीसहायजी, लॉट साहब से मिले। उन्होंने कुछ भी निश्चित् बात नहीं कहीं तथा रात्रि में फिर बुलाया। इसके बाद छोटे लॉट सर फ्रेजर ने शिखर जी मामले पर रांची में जैन समाज के प्रतिनिधियों को बुलाया। 16 सितम्बर 1908 को वार्तालाप हुआ। कुल पूरे पहाड़ को पट्टे पर देने की बात हुई। राजा पालगंज को भी बुलवाया गया था। लॉट सा़ ने दो लाख रु़ नगद व पन्द्रह हजार वार्षिक मांगे। जैनियों ने अपनी सामर्थ्य न समझकर इंकार किया-मामला तय न होकर यों ही रह गया। रांची से सेठ माणिकचंद जी 22 सितम्बर 1908 को प्रयाग आ गये। रात्रि में बाबू शिवचरण लाल रईस
के मकान पर सभा हुई। शीतलप्रसाद जी ने रांची में हुए वार्तालाप की जानकारी दी। बताया गया कि हमने अर्जी दी है, जिसमें सदा के लिए झगड़ा मिटाने के लिए हम ढाई लाख रु़ नगद और चार हजार रु़ वार्षिक देना चाहते हैं। अभी मामला तय नहीं हुआ है। सन् 1908 में पर्वत रक्षा कमेटी, कलकत्ते में सक्रिय थी। इस बीच पहले तार से व बाद में पत्र से मालूम हुआ कि लॉट सा. ने दिगम्बर जैनियों को पूर्ण पर्वत का पट्टा
दे दिया। 50000 रु. नजराना के जमा करा लिये और 12000रु. प्रतिवर्ष पालगंज स्टेट में देने का ठहराव हुआ। जो पट्टे उस वक्त तक थे, उनको कायम रखकर जो आमदनी होगी, सो दिगम्बरियों के मिले। यह स्वीकृति एफ. डब्ल्यू. ड्यू चीफ सेकेट्री बंगाल सरकार ने अपने पत्र नम्बर 4702 दिनांक 30/नवम्बर/1908 को बाबू परमेष्टीदास सरावगी और धन्नूलाल अग्रवाल को दी तथा पत्र नम्बर 4791 दिनांक 30/
नवम्बर/1908 से उक्त सेकेट्री ने सरकारी सालीसिटर को लिखा की डिप्टी कमिश्नर की राय से लिखा-पढ़ी करा लेवें। पत्र को पढ़ कर सेठ माणिकचंद जी की बहुत बड़ी चिंता दूर हुई और निश्चित हो गया कि अब पूज्य पर्वत पर बंगलों की बस्ती नहीं बनेगी। 26 अक्टूबर 1910 को 300 लोगों की उपस्थिति में दिल्ली की लक्ष्मीनारायण धर्मशाला में सभा हुई। हजारीबाग, कलकत्ता, इन्दौर,लखनऊ आदि से लोग आये थे। 1000 जैनी जमा हुए थे। सेठ माणिकचंद जी के प्रस्ताव का रायबहादुर घमण्डी लाल जी के समर्थन से म्युनिसिपल कमिश्नर व गवर्नमेंट ट्रेजरर दिल्ली के लाला ईश्वरीप्रसाद जी रईस को सभापति और बाबू धन्नूलाल अटार्नी को सभा का उप सभापति बनाया गया। सेठ माणिकचंद जी के प्रस्ताव तथा बाबू धन्नूलाल अटार्नी तथा अर्जुन लाल बी.ए. के समर्थन से से यह प्रस्ताव स्वीकार हुआ—“दिगम्बरियों को पैरवी के लिये कोई समय न दिया जाकर शिखर जी पहाड़ का पट्टा रद्द किया गया। इससे यह सभा क्षोभ प्रगट करती है तथा पुन: विचार के लिये निवेदन करती है। इसकी नकल तार द्वारा भारत सरकार को भेजी गयी। इसके बाद सेठ हुकुमचंद जी के प्रस्ताव व बहादुर सल्तान सिंह मेरठ के समर्थन से बड़े लॉट साहब को मेमोरियल भेजने का निश्चय हुआ इसकी एक सब कमेटी बनी। तीसरा प्रस्ताव रेग्युलेशन भेजे जाने का हुआ तीर्थक्षेत्र कमेटी को पत्र-व्यवहार का अधिकार दिया गया।
28 दिसम्बर 1911 के दिन कलकत्ते में प्रमुख लोगों की कमेटी गठित की गयी। सेठ माणिकचंद जी, सेठ बालचंद रामचंद और बालचंद नेमचंद,शोलापुरवालों के साथ कलकत्ते पहुंचे। इसी दिन 28 दिसम्बर को चर्चा हुई। बाबू धन्नूलाल ने भरोसा दिया कि बंगाल सरकार से बातचीत हो रही है आप चिंता न करें। सेठ जी यहां दो दिन ठहरे और श्वेताम्बरी भाईयों से समन्वय की भी चेष्टा की परंतु कोई सफलता न मिली। जब से वाईसराय लार्ड मिन्टों ने श्री शिखरजी पर्वत का पट्टा देने का बंगाल गवर्नमेंट के हुक्म को रद्द किया था। तब से सेठजी को बहुत बड़ी चिंता थी। सेठ जी उस हुकुम को रद्द कराने में लगे थे। क्योंकि उस पट्टे के लिए 50000 रु॰ का बयाना दिया जा चुका था। इसलिये बाबू धन्नूलाल जी ने 16 मार्च 1911 को अदालती नोटिस भी बंगाल गवर्नमेंट को दिया था। साथ ही 16 अक्टूबर 1912 को कमेटी के सभासदों से यह प्रस्ताव भी स्वीकार करा लिया गया था कि गवर्नमेंट पर मुकदमा चालाया जाए। दूसरी तरफ शिखरजी पहाड़ का जो सर्वे हुआ था उसमें लिखा था कि पहाड़ के मंदिर और धर्मशालाओं में सभी जैनियों को बिना किसी की इजाजत के जाने, पूजन कपने व ठहरने का हक्क है।
इस बात पर आपत्ति लेकर श्वेताम्बर लोगों ने 7 मार्च 1912 को मुकदमा नम्बर 288 दायर कर दिया। आपत्ति ली गयी कि दिगम्बरियों को श्वेताम्बरियों की इजाजत से पूजने का हक्क है,सो भी उनकी ही श्वेताम्बरियों की आम्नाय के अनुसार। इस मुकदमे से सेठ जी को और भी भारी चिंता हो गयी। आपने लाला प्रभुदयाल की सलाह से प्रमुख सभासदों की बैठक 8 व 9 फरवरी 1913 को कानपुर में बुलाई। बैठक में सेठ माणिकचंदजी, बाबू धन्नूलाल जी, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी, सहारनपुर से जम्बूप्रसाद जी आदि 14 थियों के साथ शामिल हुए। लाला सुल्तानसिंह रईस, देहली के सभापतित्व में तीन प्रस्ताव पास हुए:- शिखरजी की प्रतिष्ठा में जो रुपया आया था, वह पर्वत रक्षा फण्ड में मिलाया जाए। मुकदमा नम्बर 288 चलाया जाए तथा इसका खर्चा आधा-आधा तेरापंथी व बीसपंथी कोठी से लिया जाए। मुकदमें के प्रबंध के लिये 15 महाशयों की कमेटी बनायी जाए जिसके मंत्री व खजांची सेठ हरसुखदास, हजारीबाग हो। नये वर्ष अर्थात् 1914 के प्रारंभ से सेठ जी को शारीरिक कमजोरी के कारण चक्कर आ-जाया करते थे। आपको चिंता श्री सम्मेदशिखर पर्वत की रक्षा की थी।
लाला प्रभुदयाल की प्रेरणा व तीर्थक्षेत्र कमेटी का प्रस्ताव नम्बर 2 दिनांक 16/ अक्टूबर/1912 के अनुसार 5 सितम्बर 1913 को हजारीबाग कोर्ट में पर्वत का पट्टा कायम रखा जावे या उसका हर्जाना रु. दो लाख मिले, ऐसा मुकदमा बाबू धन्नूलाल और सेठ परमेष्टीदास की ओर से राजा रणबहादुरसिंह, पालगंज और बाबू कृष्णचंद्र घोष मैनेजर कोर्ट ऑफ वार्ड्स पर लगा दिया गया। एक अन्य मुकदमा जो श्वेताम्बरियों ने दिगम्बरियों को स्वतंत्रता से पूजन का हक न होने का किया था, कोर्ट में अटका पड़ा था। इनकी पैरवी अच्छी तरह से हो, जिससे परम् पूज्य पर्वत की रक्षा हो जाये और दिगम्बर जैनियों की भक्ति में कभी कोई अन्तराय न पड़े। दूसरी तरफ सन् 1918 में राजा पालगंज से खरीदकर कस्तूरभाई के नाम से कल्याणजी आनंद जी ट्रस्ट ने राजा पालगंज से दो लाख रुपयों में पहाड़ खरीद लिया। खरीदने के पश्चात् दिगम्बरियों को पारसनाथ पर्वत पर पूजा-पाठ करने जाने से रोकने के लिये पहाड़ पर रास्ते में में गेट लगा दिये। दरबान नियुक्त कर दिये ताकि कोई भी व्यक्ति बिना आदेश से ऊपर पहाड़ पर नहीं जावेगा। दिगम्बरियों में क्षोभ फैल गया। उन्होंने मुकदमा लगा दिया। निर्णय हुआ कि दिगम्बर सम्प्रदाय को पूजा-पाठ करने, पर्वत की यात्रा करने का पूर्ण अधिकार है तथा रास्ते पर गेट नहीं लगाया जा सकता।
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